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________________ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) पहला मिलन परमात्मा से आत्मा और पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) परमाणुओं के सामीप्य भाव से 'विशेष परिणाम' उत्पन्न हुआ, उससे अहंकार उत्पन्न हुआ। जो मूल स्वाभाविक पुद्गल था, वह नहीं रहा। प्रश्नकर्ता : इस तरह से इगोइज़म की उत्पत्ति हुई है? दादाश्री : उसमें से ही इगोइज़म की उत्पत्ति हुई है। इससे कहीं आत्मा बदला नहीं है। आत्मा वही का वही रहा है। वस्तु खुद के स्वभाव में ही है। प्रश्नकर्ता : देह के बारे में समझ में आ गया लेकिन यह जगत् बना, उसमें कौन सा जड़ है और कौन सा चेतन? दादाश्री : चेतन यही का यही है, अभी जो है वही। जड़ यह नहीं है। अभी जो जड़ है न, वह तो विकृत जड़ है। विकृत अर्थात् मूल जो होना चाहिए, वह नहीं है। मूल जड़ अणु-परमाणु के रूप में है। उन परमाणुओं के इकट्ठा होने पर अणु बनते हैं। अणुओं के इकट्ठा होने पर स्कंध बनते हैं लेकिन वह शुद्ध जड़ कहलाता है जबकि यह विकृत कहलाता है। इसमें से खून निकलता है, पीप निकलता है, दुर्गंध आती है। उसमें पीप-वीप, खून-वून कुछ भी नहीं निकलता। अब इस प्रकार ये दो, आत्मा तो यही का यही, जो रियल है, वह है और जड़ परमाणु, दोनों के मिलने से विशेष गुण उत्पन्न हो जाता है। दोनों ही वस्तुएँ खुद के गुणधर्मों को नहीं छोड़ती। जो विशेष गुण उत्पन्न होते हैं, उन्हें व्यतिरेक गुण कहा जाता है। ये क्रोध-मान-माया-लोभ उत्पन्न होते हैं और तभी से अहंकार की शुरुआत होती है, बिगिनिंग होती है। अब, आत्मा कुछ भी नहीं करता है इसके बावजूद सिर्फ एक विभाव उत्पन्न हो गया है। खुद का स्वभाव यानी कि खुद के जो भाव हैं, और विभाव को बहिर्भाव कहा जाता है। बहिर्भाव यानी कि सिर्फ यों दृष्टि करने से ही ये मूर्तियाँ बन गई हैं। दृष्टि ऐसे करने से ही, और
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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