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________________ 'मैं शुद्धात्मा हूँ', क्या वह अहंकार कहलाता है ? नहीं। वह क्या है ? जो है, उसे 'मैं हूँ', ऐसा मान ले तो वह अहंकार नहीं है। जो नहीं है, उसे 'मैं हूँ' माने तो उसे अहंकार कहा है। हर एक को 'मैं हूँ', ऐसा अस्तित्व का भान है ही लेकिन यदि 'क्या हूँ', ऐसा भान हो जाए तो उसे वस्तुत्व कहा गया है। वही 'मैं शुद्धात्मा हूँ' है। शुद्धात्मा को जानने के बाद धीरे-धीरे जब पूर्णत्व होता है तब 'मैं' पूर्ण रूप से खत्म हो जाता है। 'मैं' शुद्धात्मा तो हूँ ही। उसके बाद 'उसे' भ्रांति हो गई कि 'मैं कर रहा हूँ'। वह हुआ अहंकार। उसके बाद 'मैं' में से अहंकार हुआ कि 'मैं चंदूभाई हूँ'। उस अहंकार को अज्ञान प्रदान से अंधा बनाया। इतना ही नहीं, वापस पिछले कर्मों के चश्मे चढ़ गए इसलिए 'मेरी वाइफ, मेरे बच्चे' दिखाई देते हैं। अहंकार किसे हुआ? अज्ञान को। अज्ञान किस तरह से उत्पन्न हुआ? संयोगों के दबाव से। जैसे कि शराबी खुद को महाराजा मान लेता है! चाहे आत्मा पर कितना ही आवरण आ जाए लेकिन 'खुद' तो प्रकाशक ही रहता है तो फिर क्या परेशानी है? लेकिन इससे अहंकार को क्या फायदा? अहंकार को जब मीठा लगे तभी वह ऐसा कहता है कि 'शक्कर है', तभी निबेड़ा आता है। अहंकार का निबेड़ा लाना है, आत्मा का निबेड़ा तो है ही। हम नामरूपी व व्यवहाररूपी नहीं हैं तो वस्तुतः हम कौन हैं ? हम ज्ञान और अज्ञान रूपी ही हैं। ज्ञान अथवा अज्ञान के अनुसार ही संयोग मिलते हैं। उच्च ज्ञान, वह उच्च कर्म बाँध लाता है। निम्न ज्ञान हो तो निम्न कर्म। अहंकार भी खुद नहीं है, वह 'खुद' ज्ञान-अज्ञान है! 'खुद' का अर्थ ही है ज्ञान और अज्ञान। वही उसका उपादान है लेकिन यह अत्यंत सूक्ष्म बात समझ में नहीं आ सकती इसलिए ज्ञान-अज्ञान के प्रतिनिधि अर्थात् अहंकार को हम स्वीकार करते हैं। अतः यों अगर मोटी भाषा में कहें कि अहंकार कर्म बाँधता है लेकिन वास्तव में ज्ञान-अज्ञान की वजह से कर्म बंधन होता है। उसे उपादान भी कहते हैं और जहाँ 41
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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