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________________ १८० आप्तवाणी-१४ (भाग-१) वह अंहकार कैसा होता है ? उस अंहकार के शुद्ध होते, होते, होते, होते, होते लोभ के परमाणु निकल जाते हैं, मान के परमाणु निकल जाते हैं, क्रोध के परमाणु निकल जाते हैं, वक्रता के परमाणु निकल जाते हैं, माया के, सभी परमाणु निकलते, निकलते, निकलते, निकलते... जो बिल्कुल शुद्ध 'मैं' बचता है, वह और शुद्धात्मा, दोनों अपने आप ही एकाकार हो जाते हैं, ऑटोमैटिकली। उसी को कहते हैं क्रमिक मार्ग। हर एक में तीन चीजें हैं, प्रकृति, अंहकार और शुद्धात्मा। आपका (महात्माओं का) अंहकार निर्मूल हो चुका है। अब आपमें दो चीजें बचीं। एक, प्रकृति और दूसरा, शुद्धात्मा। प्रश्नकर्ता : अब यह प्रकृति को जिस भाव से रंगा है, वह उसी भाव से डिस्चार्ज होगी, तो क्या उस समय 'मैं' नहीं रहता? दादाश्री : वह तो परिणाम है न! प्रश्नकर्ता : क्या सिर्फ उसका परिणाम ही रहता है ? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : अर्थात् उसमें 'मैं' की ज़रूरत नहीं है? दादाश्री : 'मैं' की ज़रूरत नहीं है। परिणाम में कोई ज़रूरत नहीं है। इसलिए 'मैं' रहता ज़रूर है, लेकिन परिणाम के रूप में, डिस्चार्ज के रूप में। प्रश्नकर्ता : तो प्रकृति की क्रिया पूर्ण होने तक ही उसमें 'मैं' रहता है? दादाश्री : हाँ, बस उतना ही। प्रश्नकर्ता : तो क्या ऐसा है कि उसकी सहमति रहने पर ही प्रकृति खत्म होती है? दादाश्री : नहीं! जैसा नाटक किया था, उसी प्रकार यहाँ पर नाटक करना पड़ेगा। पहले कर्ता भाव से नाटक किया था, उसी प्रकार
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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