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________________ ( १.८) क्रोध - मान से 'मैं', माया - लोभ से 'मेरा ' प्रश्नकर्ता : ठीक है। अतः जब तक वह पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) परिणाम को खुद का मानता है, तो क्या वही विशेष परिणाम का मूल कारण है ? १०७ दादाश्री : हाँ, साथ में रहने के कारण उन्हें खुद का मानता है इसलिए क्रोध-मान-माया - लोभ खड़े हो जाते हैं । उससे यह सब दिखाई देता है। संसार खड़ा हो जाता है फिर । खुद का मान वगैरह सबकुछ उसी से उत्पन्न होता है । पूरा अंत:करण उसी से उत्पन्न हो गया है और मन तो अहंकार ने बनाया है। वह अहंकार की वंशावली है, उसके वारिस | प्रश्नकर्ता : तो मन अहंकार का क्रिएशन है ? दादाश्री : मन, वह अन्य किसी और का क्रिएशन नहीं है, अहंकार का है। प्रश्नकर्ता : अभी जो विचार आता है, वह क्या अभी के अहंकार का क्रिएशन है ? दादाश्री : पहले का है वह । अभी जो आता है वह सारा परिणाम है। उसमें वापस बीज डलता है और अगले जन्म में काम आता है। पुराना परिणाम भोगता है और फिर नया बीज डाल देता है। अभी आम खाता है, रस वगैरह खाकर वापस गुठली डाले तो वह गुठली उगती है प्रश्नकर्ता : यह बीज डालना विशेष परिणाम माना जाता है क्या ? दादाश्री : विशेष परिणाम तो दो चीज़ों के साथ में आने की वजह से आता है, अपने आप ही उत्पन्न होता है। वह दृष्टि है एक प्रकार की । और उससे क्रोध - मान-माया - लोभ होते हैं । और बीज तो, वह फिर वापस भ्रांति से डालता है । इस गुठली का क्या करना, वह पता नहीं इसलिए फिर वापस डाल देता है और वह वापस उगती है। यदि गुठली को सेंक देगा तो नहीं उगेगी। यदि वह ऐसा ज्ञान जानेगा तभी । इसी प्रकार इसमें कर्ता रहित हो जाएगा तो वह नहीं उगेगा । अक्रिय हो जाएगा तो नहीं उगेगा।
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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