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________________ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) तभी उसे भेद दिखाई देता है। विशेष ज्ञान तो कहाँ तक जाता है? कि, यह तो काला है, यह तो गोरा है, यह तो लंबा है, यह तो ठिगना है, यह तो मोटा है, यह तो पतला है। विशेष ज्ञान का तो अंत ही नहीं आता न! अतः दर्शन से देखना है सब, सामान्य भाव से। अतः हमारा दर्शन के अलावा अन्य कहीं उपयोग नहीं रहता, निरंतर उपयोग रहता है। हम घड़ी भर के लिए भी, एक मिनट के लिए भी उपयोग से बाहर नहीं रहते। आत्मा का उपयोग रहता ही है। विधियाँ करते समय भी हमें आत्मा का उपयोग रहता है। ___ 'ज्ञान' एक ही है, उसके भाग अलग-अलग हैं। हम इस 'रूम' को देखें तो 'रूम' और 'आकाश' को देखें तो 'आकाश', लेकिन 'ज्ञान' तो वही का वही है ! जब तक यह विशेष ज्ञान देखता है, सांसारिक ज्ञान देखता है, तब तक आत्मा दिखाई ही नहीं देता और आत्मा जानने के बाद में दोनों दिखाई देते हैं। यदि आत्मा को नहीं जाने तो कुछ भी नहीं दिखाई देगा, सभी अंधे! प्रश्नकर्ता : आत्मा तो ज्ञान वाला ही है न? दादाश्री : वह खुद ही ज्ञान है। खुद ज्ञान वाला नहीं है, ज्ञान ही है खुद! यदि उसे ज्ञान वाला कहेंगे तो 'ज्ञान' और 'वाला', ये दो अलग कहलाएँगे। यानी कि आत्मा खुद ही ज्ञान है, वह खुद ही प्रकाश है! उस प्रकाश के आधार पर यह सभी दिखाई देता है। उस प्रकाश के आधार पर यह सब 'उसे' समझ में भी आता है और 'वह' जानता भी है। वह जानता भी है और उसे समझ में भी आता है! विभाव के बाद प्रकृति और पुरुष जड़ और चेतन, दोनों के साथ में रहने से दोनों के विशेष गुणधर्म उत्पन्न हो गए हैं। उसमें से यह पूरा कारखाना खड़ा हो गया। प्रश्नकर्ता : इसी को प्रकृति और पुरुष कहा जाता है न? दादाश्री : नहीं! बाद में इसमें से प्रकृति और पुरुष बने। प्रकृति
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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