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________________ है, दूसरा कौन है करने वाला?' और क्रोध-मान-माया-लोभ वगैरह सबकुछ उत्पन्न हो जाता है। प्रथम विभाव 'मैं' है और उसके बाद उसे जो रोंग बिलीफ हो जाती है कि 'मैं चंदू हूँ', वह दूसरे लेवल का विभाव है। _ 'मैं' को 'मैं चंदू हूँ' की जो रोंग बिलीफ हो जाती है, ('मैं चंदू हूँ', वह अहंकार, वही व्यवहार आत्मा है) बाद में वह गाढ़ रूप से दृढ़ हो जाती है उसे ज्ञान में परिणामित होना कहते हैं। वह विभाविक ज्ञान, विशेष ज्ञान कहलाता है, जिसे बुद्धि कहा गया है और उससे जड़ परमाणुओं में प्रकृति उत्पन्न हो जाती है, उसी को कहते हैं विशेष भाव! इस प्रकार मूल आत्मा के स्वाभाविक भाव और विभाविक भाव दोनों ही होते हैं। विभाव अर्थात् विरुद्ध भाव, वह विधान त्रिकाल विज्ञान से, वास्तविकता से विरुद्ध है। शरीर में पुद्गल और आत्मा समीप रहे हुए हैं। समीप रहते हैं लेकिन इतने से ही खत्म नहीं हो जाता। परंतु 'उनमें' 'सामीप्य भाव' उत्पन्न हो जाता है! सामीप्य भाव से भ्रांति उत्पन्न होती है कि 'मैं' यह हूँ या वह हूँ? क्रिया मात्र पुद्गल की है लेकिन भ्रांति होती है कि 'मैं' ही कर रहा हूँ। अन्य तो कोई करने वाला है ही कहाँ? आत्मा खुद कर्ता है ही नहीं लेकिन खुद मानता है कि 'मैंने ही किया', वही भ्रांति है। और यह है दर्शन की भ्रांति, ज्ञान की नहीं। बहुत ही कम लोगों को पता चलता है कि यह भ्रांति है। ___ भ्रांति अर्थात् हिचकोले में से उतरे हुए इंसान को ऐसा लगता है कि दुनिया घूम रही है। अरे, दुनिया नहीं, तेरी रोंग बिलीफ तुझे घुमा रही है। बाकी' कुछ भी नहीं घूम रहा है। पुद्गल परमाणुओं की चंचलता के कारण यह विशेष भाव उत्पन्न होता है, ऐसा कहने का मतलब क्या यह नहीं है कि पुद्गल (जो पूरण और गलन होता है) को गुनहगार ठहराया? यह तो, दो तत्त्वों के साथ में आ जाने से विशेष गुण उत्पन्न होते हैं, जो कि बिल्कुल कुदरती है। मात्र जड़ और चेतन के पास-पास आने से विशेष भाव उत्पन्न होता है, 13
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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