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________________ (१.४) प्रथम फँसाव आत्मा का वाला दुःख, परेशानी) स्वभाव की वजह से क्योंकि हमें ये सभी एविडेन्स मिले इसलिए एविडेन्स के आधार पर हम पर दबाव आता है, और उपाधि भाव हो जाता है। इनमें से जो चेतन है, सिर्फ वही मोक्ष की तरफ जा रहा है। इसमें और कुछ भी नहीं हो रहा है, बाकी का सब तो वैसे का वैसा ही है, निरंतर । लेकिन बुद्धि कैसा ढूँढ निकालती है कि शुरुआत हुए बिना तो कैसे हो सकता है ? अरे, शुरुआत करेगा तो एन्ड आएगा। तू ही मूर्ख बनेगा। राउन्ड की कोई शुरुआत होती है क्या? कोई कहेगा कि 'भाई ये सूर्यनारायण उग रहे हैं, इन सूर्यनारायण की शुरुआत कहाँ से हुई?' और यदि भगवान ने बनाया कहेंगे न, तब तो फिर उसकी कड़ी ही नहीं मिलेगी। जबकि मैं जब विज्ञान से कहता हूँ तभी इसकी कड़ी मिलती है। तिरछी नज़र और चिपक पड़ा आत्मा, इसमें स्वाभाविक ज्ञान-दर्शन और विभाविक ज्ञान-दर्शन हैं। अतः ज्यों ही तिरछा देखा कि क्या इतने से ही चिपक पड़ा? तो कहते हैं, 'हाँ इसीलिए चिपक पड़ा है यह पूरा ही जगत्' । 'तिरछा क्यों देखा?' कहते हैं। __ हाँ, तो इसी तरह यह जगत् चिपक पड़ा है। संयोगों का बेहिसाब जथ्था है और जथ्थे में तिरछा देखा तो आ बनी और फिर चला एक में से एक, एक में से एक, और फिर अनंत। यह सब बढ़ता ही चला गया। अब यह जो चेतन है न, उसे अंदर से मुक्त होना है फिर भी नहीं हो पाता। तो भाई, पुद्गल का ज़ोर ज़्यादा है या चेतन का? तो अभी तो पुद्गल में ही 'मैं फँसा हुआ हूँ', कहता है। नहीं? यदि यह पूरी बाज़ी लोहे की होती न, तब तो कभी का ही वेल्डिंग लगाकर काट देते लेकिन अंदर क्या यह पूरा लोहे का है? एक कँगूरा भी नहीं टूटता। मायाजाल! अतः यह तो, जो मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार हैं न, वे 'मैं कर रहा हूँ, मैं कर रहा हूँ' कहते हैं, वे सब तो हथियार हैं। ये हथियार क्यों
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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