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________________ ४६ आप्तवाणी-१४ (भाग-१) प्रश्नकर्ता : लेकिन इसके साथ ही हर एक प्राणी के अलग-अलग गुण और स्वभाव आते हैं न? दादाश्री : हाँ! हर एक का अलग-अलग स्पेस होता है, वह अलग-अलग, उसमें भी स्वभाव अलग-अलग होते हैं। जैसे एविडेन्स मिलते हैं वैसा ही हो जाता है। जैसे दूसरे संयोग मिलते हैं वैसा ही हो जाता है। आपका स्वरूप उन संयोगों से बाहर है। संयोगों के दबाव से सर्जित हुआ संसार प्रश्नकर्ता : हम ऐसा मानते हैं कि कोई अलौकिक शक्ति है और दूसरी तरफ हम हैं। हम उसके भाग हैं न... दादाश्री : किसी के भी भाग नहीं हैं, आप भाग नहीं हो। प्रश्नकर्ता : एक ही हैं? दादाश्री : नहीं, नहीं! एक भी नहीं। आप अपनी तरह से स्वतंत्र हो। आपका कोई ऊपरी (बॉस, वरिष्ठ मालिक) नहीं है। यदि हम उसके भाग होते न, तब तो वह मार-मारकर अपना तेल निकाल देता। ऐसा नहीं है, यह तो बिल्कुल स्वतंत्र है। प्रश्नकर्ता : यदि सब स्वतंत्र हैं तो ये सब जो, हर एक इकाई अलग-अलग है, तो ये संयोग किस प्रकार से प्रबंधित (अरेन्ज्ड) हैं ? दादाश्री : बिल्कुल! रेग्युलेटर (व्यवस्थित, साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडेन्स) से प्रबंधित हैं ये। प्रश्नकर्ता : आपने सार तो बता दिया कि ये इस प्रकार से प्रबंधित हैं लेकिन इसका कारण क्या है? दादाश्री : इसके कारण में और कोई चीज़ नहीं है। ये जीव निरंतर प्रवाहित होते-होते स्वाभाविक होने की कोशिश कर रहे हैं, स्वाभाविक! जो विशेष भावी हो चुके हैं, वे स्वाभाविक होने की कोशिश कर रहे हैं। यह विशेष भाव क्यों हो गया? तो कहते हैं, उपाधि (बाहर से आने
SR No.034306
Book TitleAptavani 14 Part 1 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Other
File Size2 MB
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