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પ્રેરણાની પાવનમૂર્તિ
પરિશિષ્ટ-૬
रहनुमां मार्गदर्शक, मसायल समस्याएँ, तामीर भवननिर्माण, अहद पक्का निश्चय, मसरूर प्रसन्न, लम्हों क्षण, रिंद मस्तमौला
और महादेव की तरह खुद पी लिया जहर इस भयंकर रोग का ताकि
मानव मात्र इससे छुटकारा पा सके । एसी महान तेजोमयी तथा युगदृष्टा साध्वी मृगायतीश्रीजी जिसे पाने के लिए भारतमाता रूपी नर्गिस ने हजारों साल तपस्या की व दोबारा सदियों तक न होंगे जिसके दर्शन उसके पावन चरण कमलों में सादर सश्रद्धा सभक्ति नमन व समर्पित है श्रद्धांजलि ।।
कहां जा रहे हो ?
- सुशील कुमार 'रिंद' कहां जा रहे हो रहनुमां हमारे । अभी बहने दो अमृत के धारे ।। कहां जा... अभी काम बहुत अधूरे पड़े हैं, अभी कुछ मसायल तो यूं ही खड़े हैं । है दरकार कुछ और एहसां तुम्हारे ।। कहां जा.... स्मारक तुम्हें था जो जां से भी प्यारा, हो तामीर जल्दी अहद था तुम्हारा । शरू करके अब हो रहे हो किनारे ।। कहां जा... स्वगों की खुशियों से मसरूर हो तुम, जहां भर की तकलीफों से दूर हो तुम । तडपते सिसकते हैं सेवक तुम्हारे ।। कहां जा.... निगाहों में आंसू दिलों में है हलचल, बिखरने को है कुछ लम्हों में ये महफिल । अगर चांद तुम हो तो हम हैं सितारे ।। कहां जा.... स्मारक से जोडी है अपनी कहानी, रहेगी युगों तक ये तेरी निशानी ।। ये कुरबानी तेरी के होंगे नजारे । कहां जा.... अभी जाने की भी कोई ये उमर थी, चौरासी में चौबीस की रिंद कसर थी ।। ये नाराजगी के है लगते इशारे ।। कहां जा... कहां जा रहे हो रहनुमां हमारे । अभी बहने दो अमृत के धारे ।। कहां जा...
जीवन झांकी
- कु. प्रोमिला जैन एडवोकेट, लुधियाना सुनो सुनाये कथा इक महासती की, जैन भारती महत्तरा मृगावती की । सरधार की भूमि भी कितनी भाग्यवान थी, अवतरित हुई वहीं पे ये साध्वी महान थी । विक्रम संवत उन्नीसौ ब्यासी का शुभ वर्ष, माता-पिता के मन में छाया अपार हर्ष । चैत्र मास की जब आई सुदि सप्तमी, डुंगरशी संघवी के घर जन्मी थी लक्ष्मी । माता शिवकुंवर की थी वो लाडली बेटी, पुत्र चिन्ता भी थी जिसने माता की मेटी । माता के पुण्य जागे तो संन्यास ले लिया, बारह वर्ष की भानु को भी साथ ले लिया । मां-बेटी का सांसारिक नाता छोड दिया था, सुशिष्या और गुरु का नाता जोड लिया था । माता जो संयम लेके बनी शीलवती जी,
और शीलवती की सुशिष्या मृगावती जी । छोटी सी उम्र में सभी थे ग्रंथ पढ लिए, न जाने कितने ग्रंथ थे कण्ठस्थ कर लिये । साध्वी संघ में वो साध्वी महान थी, आत्म-वल्लभ की वाटिका की यो तो शान थी । चेहरे से उनके छलकता इक दैवी नूर था, न जाने कितने दुःखियों के दुख थे हर लिये । जो सत्य था वो उसको कहने से न डरती थी, आता था उनको हुनर दिल में उतर जाने का ।
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