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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पहुँच गये । आपके साथ भक्तगण भी पूजीपात्र थे जिससे पढ़ने लिखने की व्यवस्था शीघ्र अच्छी तरह हो गई । अब हीरहर्ष मुनि दत्तचित्त से अभ्यास करने लगे। थोड़े ही समय में आपने चिंतामण्यादि शैवादिशास्त्रों का प्रखर पांडित्य प्राप्त कर लिया । हीरहर्ष मुनि अपने इष्ट कार्य को सम्पन्न कर दक्षिण देश से प्रयाण कर अहिंसा धर्म का पूर्ण प्रचार करते हुये गुजरात की तरफ पधार गये। उस समय तपागच्छनायक शासन सम्राट श्री मद्विजयदान सूरीश्वरजी गुजरात के तीर्थों की यात्रा कर मरुधर तीर्थों की यात्रा करते हुये नारदपुरी में पधारे । गुरुदेव की जिज्ञासा करने पर हीरहर्ष मुनि को पता चला कि गुरुदेव मारवाड़ में बिराजते है । आप भी तुरन्त वहां से विहार कर गुरुदेव के दर्शन करने की लालसा से नारदपुरी में पधार गये । जिस समय गुरु शिष्य की भेंट हुई। उस वक्त के हर्षश्रोत का वर्णन करना लेखनी के बाहर का विषय है। . अलौकिक प्रतिभाशाली विनयवान शिष्य को देख कर गुरु महाराज की प्रसन्नाकृति पूर्ण चन्द्र जैसी चमकने लगी। गुरुदेव को देखते ही हीरहर्ष के नेत्र से हर्षाश्रु की नदी बहने लगी। तदनन्तर हीरहर्ष मुनि ने तात्कालिक बनाये हुये १८८ काव्यों में खड़े २ गुरुदेव की स्तुति करके गुरुदेव को सविधि द्वादशव्रत वन्दना की । जैसे चन्द्र को देख समुद्र की कल्लोलें उल्लास को प्राप्त करती हैं। वैसे ही गुरु महाराज भी सकल कलाभ्यास संपन्न विनीत शिष्य को पाकर हर्षित होने लगे। हीरहर्प मुनि भी गुरु सेवा हार्दिक भाव से करते हुये सद्गुणों का विशेष विकस्वर के साथ योगोद्वहन करने लगे। हीरहर्ष मुनि की विद्वत्तापूर्ण योग्यता जानकर कुछ समय बाद उसी नारदपुरी नाम की नगरी में आचार्य देव ने सं० १६०७ में श्री ऋषभ देव प्रासाद के सानिध्य में श्रीसंघ के समक्ष मुनि को पंडित (पंन्यास) पद प्रदान किया। इस पद को भली प्रकार पालन करते हुये एक वर्ष For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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