SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक दिन गुरुदेव श्रीमद्विजयदानसुरीश्वरजी अपने अन्तःकरण में सोचने लगे कि हीरहर्ष मुनि बड़ा बुद्धिमान और अधिक प्रतिभाशाली है। इतनी छोटी अवस्था में ही ज्योतिष शिल्प न्याय व्याकरण आदि शास्त्रों में पारंगत हो गया। अब षट् दर्शन सम्बन्धी शास्त्र ही शेष रहा है। अगर उसका भी अध्ययन कर लेता तो चन्द्रमा की पूर्ण कला की तरह यह भी सकल कला से सम्पन्न हो जाता और अगाध यौगिक सागर में लघुबुद्धि रूप नदियों का निवारण कर सकता तथा अन्य कंटकादि रूप प्रतिपक्षियों का निवारण कर सकता इत्यादि मनोरथ रथ बढाते ही हीरहर्ष मुनि चरणाश्रित होकर बोलने लगे कि पूज्य गुरुदेव ! यदि आपकी आज्ञा हो तो शेष रहे हुए दर्शन शास्त्र का भी अध्ययन करलू। किन्तु आपकी सेवा से वंचित रहना इष्ट नहीं है । अतः किंकर्तव्यमूढ़ हूँ। __ इतने हीरोक्त वचन सुनते ही गुरुदेव कहने लगे, प्रिय विद्या प्रेमिन् ! मेरी इच्छा के अनुसार ही तेरी इच्छा की जागृति हुई। अस्तु, सेवा देवी तेरे हृदय मन्दिर में विराजमान है तो उससे वंचित होने की लेश मात्र भी शंका नहीं रखना । अब रहा अध्ययन का विषय। उसमें इस देश के पंडितों की अपेक्षया दक्षिण देशस्थ विचक्षण विद्वानों से ही अधिक लाभ होगा। क्योंकि यहां के विद्वद्गण तद्देशीय पंडितों की तुलना नहीं कर सकते । अतः वहीं जाओ। इतना कहकर विजयदानसूरिजी ने शुभ दिन देख कर धर्मसागरजी आदि ४ शिष्यों के साथ हीरहर्ष मुनि को दक्षिण देश में अध्ययन करने के लिये भेज दिया। __हीरहर्ष मुनि गुरुदेव से दी हुई आज्ञा माला को पहन कर मार्ग में पिपासुजनों को धर्मोपदेश रूप सुधा से सन्तुष्ट करते हुये अचिर समय में ही आदिष्ट दक्षिण देशस्थ देवगिरि नामक दुर्ग स्थान पर For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy