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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एक दिन की बात है कि भव्य जीवों को प्रतिबोध देने के लिये ग्रामानुग्राम विचरते हुए तपागच्छाधिराज जैनाचार्य श्रीमद्विजय दानसूरीश्वरजी महाराज शिष्योपशिष्य सहित पालनपुर पधारने पर संसार सागर से पार लगाने वाली सर्वोपद्रव को नाश करने वाली मनोहर देशना आचार्य देवने प्रारम्भ की । प्रतिदिन बढ़ती हुई जनता को देखकर हीरजी भी अपने इष्ट मित्रों के साथ घूमते हुए व्याख्यान में पहुँच गये । व्याख्यान पढते हुए भी गुरुदेव की दृष्टि हीरजी के ऊपर पड़ते ही उनके स्वच्छ लक्षण उनकी आकृति से दीख पड़े | व्याख्यानान्तर गुरुजी के पूछने पर सभा में से उत्तर मिला कि सेठ कुंराशाह का प्यारा पुत्र है । गुरुजी ने क्षरण मात्र विचार कर गोचरी के निमित्त हीरजी के घर पधार कर उनके माता पिता के सामने दीक्षा सम्बन्धी भाव प्रगट किया कि यह लड़का साधु बन जाता तो शासन सेवा का भार अपने कन्धों पर वहन कर सकता | यह अमर नाम करता तो उसमें तुम्हारा ही गौरव बढ़ता इसलिये इसको वैराग्य का उपदेश देते रहना ताकि कभी यह स्वयं साधु पद स्वीकार करने की भावना करेगा । इतना वाक्य गुरु मुख से सुनकर मोह के कारण मातापिता मौन हो गये । तब गुरुजी भी अपने स्थान पर आ गये । कुछ दिन के बाद श्री संघ ने मिलकर कहा कि सेठ साहब ! गुरुदेव ने आपके घर पधार कर हीरा की याचना की, मगर आपने कुछ उत्तर तक नहीं दिया । अत्यन्त खेद है कि आपने गुरुदेव का वचन अंगीकार नहीं किया । अस्तु ! अब भी श्री संघ आपसे मांगनी करता है कि हीरा को गुरुदेव के चरणों में समर्पण करदो । अगर आप चाहें तो संघ सेहरा के बराबर स्वर्ण राशि ले सकते हैं। इस बात को सुन नाथी देवी ने कहा कि श्रीसंघ मालिक है जो चाहे सो दे सकते हैं किन्तु मेरा के बिना स्वर्ण राशि क्या शोभा देगी ? अगर श्रीसंघ का ऐसा ही आदेश है तो कुछ दिनों के बाद हीरा को गुरु चरणों में भेजने की For Private and Personal Use Only
SR No.034238
Book TitleJagad Guru Hir Nibandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhavyanandvijay
PublisherHit Satka Gyan Mandir
Publication Year1963
Total Pages134
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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