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________________ सायों के निमत्त कारण ज्ञानावर्णिय कर्म के क्षोपशमसे अवधिज्ञान होता है तथा गुणप्रतिपन्न अनगार को अनेक प्रकार कि तपश्चर्यादि करने से अवधिज्ञान उत्पन्न होता है जिस्के भेद असंख्याते है परन्तु यहांपर संक्षिप्तसे छे भेद कहते है. (१) अनुगामिक-जहांपर जाते हो वहाँपर ही ज्ञान साथमे चले। (२) अनानुगामिक-जीस जगाहा ज्ञान हुवा हो उसी जगहा (३) वृद्धमान-उत्पन्न होने के बाद सदैव षढता ही रहै। (४) हीयमान-उत्पन्न होने के बाद कम होता जावे। (५) प्रतिपाति-उत्पन्न होने के बाद पीच्छा चला जावे। (६) अप्रतिपाति-उत्पन्न होने के बाद कभी नही जावे । विस्तारार्थ-अनुगामिक अवधिज्ञान जैसे कीसी मुनि कों अवधिज्ञान उत्पन्न हुषा हो उस्के दो भेद है अंतगयं और मजगयं. इसे भी अंतगयं के तीन भेद है आगेके प्रदेशों से, पीच्छे के प्रदेशों से पासवाड के प्रदेशों से. जैसे दृष्टान्त-कोह पुरुष अपने हाथमें दीवा मणि चीराख लालटेनादि आगे के भागमे रख चलता हो तो उस्का प्रकाश आगे के भागमें पडेगा. इसी माफीक पीच्छाडी रखनेसे पोच्छाडी प्रकाश पडेगा और पसवाडे रखनेसे प्रकाश पसवाडे मे पडेगा. इसी माफीक जोस जीस प्रदेशों के कर्मदल दूरा हुवा है उस उस प्रदेशों से प्रकाश हो सर्व रूपी पदार्थों को अब. विज्ञान द्वारा जान सकेगा, और जो 'मजगय' अवधिज्ञान है वह जैसे कोई आदमि दीपक चीराख मणी आदि मस्तकपर रखे तों उस्का प्रकाश चौतर्फ होगा इसी माफीक मध्य ज्ञानोत्पन्न होनेसे पर चौतरफ के पदार्थों को जान सकेगा. एवं अनुगामिक ज्ञान का स्वभाव है कि वह जहां जावे वहां साथमे चले। .. अनानुगामिक अवधिज्ञान जेसे कोई मनुष्य एक सीघडीमें WERSITY
SR No.034232
Book TitleShighra Bodh Part 06 To 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundar
PublisherVeer Mandal
Publication Year1925
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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