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________________ ૪ मैं माणिक्यचन्द्र ने और कान्यकुब्ज में सोमेश्वर ने सोची होगी, यह भी सम्भव है। रुचक, रुय्यक और सोमेश्वर के स्थितिकाल कल्पनारूढ पोर वादग्रस्त हैं जब कि माणिक्यचन्द्र का समय निश्चित है अतः हम इन्हें ही प्रथम टीकाकार के रूप में यहाँ मान रहे हैं । [२] काव्य-प्रकाश सङ्केत राजानक ( रुचक) रुय्यक (सन् ११३५-६० ई० अनुमानित ) राजनक मम्मट के ही देश काश्मीर में राजानक रुचक ने काव्यप्रकाश पर यह उस देश के निवासियी में पहली टीका लिखी है। रुचक के नाम के विषय में विद्वानों में कुछ मतभेद है। यह मतभेद इसलिये उत्पन्न हुआ है कि 'अलङ्कर र सर्वस्व' के टीकाकार जयरथ ने उपसंहार में - 'राजानकरुय्यकस्य राजानकरुचकापरनाम्नोऽलङ्कारसर्वस्वकृतः इत्यादि पंक्ति लिखी है और इससे यह प्रकट होता है कि 'राजानक रुय्यक' ही 'राजानक रुचक' हैं और साथ ही शारदादेशवासी होने तथा ईसा की बारहवीं शती का मध्यभाग (११३५ - ११६०३.) इनका स्थितिकाल होने के कारण रुचक यक ही काव्यप्रकाश के सर्वप्रथम टीकाकार भी माने गये हैं। दूसरा पक्ष इस बात को नहीं मानता है। इस पक्ष का कहना है कि 'रुय्यक मौर रुचक एक नहीं है।' इसके समर्थन में उनका कथन है कि रुयक के मतों का उल्लेख और उनकी समालोचना स्वयं मम्मट ने की है। अतः रुय्यक मम्मट से पूर्ववर्ती हैं। ऐसे ही कुछ प्राधारों पर अब तक यह अनिश्चित ही है कि रुचक और रुय्यक में से किसी यह टीका है ? अधिक पक्ष रुवक को स्वतन्त्र मानने वालों का है। श्री रसिकलाल छोटालाल परीख ने सोमेश्वर के काव्यादर्श को रुचक का उपजीव्य सिद्ध किया है। इस दृष्टि से ये सोमेश्वर से पूर्ववर्ती हैं। इनका मङगलाचरण एवं उपक्रमसूचक पक्ष इस प्रकार हैं पेन शिवलेषो मालेव्वसुरसुभ्रुवाम् । नासाच्यंयेवाऽऽशु स शुभायास्तु यः शिवः ।। (भारम्भ ) ज्ञात्वा धीतिलकात् सर्वालङ्कारोपनिषदसम् । काव्यप्रकाशस तो रखकेनेह लिख्यते || ( प्रत ) इस संकेत में प्रमुख - प्रमुख अंशों पर सङ्केतात्मक टिप्परगी दी गई है । रुचक ने ही काव्यप्रकाश के अन्तिम पद्य 'इत्येष मार्गों विदुषां विभिन्नो' इत्यादि पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि "महामतीनां प्रसरखहेतुरेव प्रत्यो ग्रन्थकृता कथमप्यसमाप्तत्वात् परेण च पूरितावशेषत्वाद् द्विखण्डो ऽप्यखण्डता यदवमासते तत्र सङ्घटनैव साध्वी हेतु न हि सुघटितस्य सन्धिबन्धः कदाचिल्लक्ष्यत इत्यर्थशक्त्या ध्वन्यते ।" इससे काव्यप्रकाश की महत्ता और द्विकर्तृकता पर प्रकाश पड़ता है। सुबोध्य बनाना ही इनका लक्ष्य रहा है तथापि रुचक ने भामह, उद्भट, खट प्रादि के यत्रतत्र मम्मट की प्रालोचना भी की है। विवेश्य अंशों को संकेतरूप में मन्तथ्यों को पुरस्कृत करते हुए इस टीका का प्रकाशन पं. शिवप्रसाद भट्टाचार्य के सम्पादकत्व में कलकत्ता घोरिएण्टल जर्नल १९३४-१५ १. पं० वामनाचार्य भलककर तथा कविशेखर बद्रीनाथ भा प्रभृति का यही प्रभिमत है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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