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________________ ५६ ४. काव्यशास्त्र के क्षेत्र में शताब्दियों से प्रचलित मतों का सार संग्रह इसमें समाविष्ट है । ५. नाट्य सम्बन्धी शास्त्र को छोड़ कर काव्यशास्त्र के सभी अंगों का व्यापक विवेचन इसकी विशेषता है । ६. अनेक नये सिद्धान्तों के विकास का यह मूलस्रोत है । ७. प्राचीन आचार्यों पर श्रद्धा रखते हुए भी इसमें यथावसर उनकी समालोचना करके वास्तविक पक्ष की स्थापना की गई है । ८. विभिन्न प्राचार्यों का श्राधार रखते हुए भी अपने स्वतन्त्र विचारों का प्रकाशन करने में संकोच नहीं किया गया है। ऐसे ही गुणों के कारण काव्यप्रकाश को अलङ्कार- शास्त्रों की परम्परा में प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ है तथा यह भावी भाष्य तथा व्याख्याओं का उद्गमस्रोत बना हुआ है। डॉ० आदित्यनाथ झा ने उचित ही लिखा है कि काव्यानुशासन- विवेचन- कोविदानां, प्रज्ञा- सुवर्ण- निकषोपलतां दधानः । स्वल्पैः पदैविवृतमूरिगभीरतत्त्वः, 'काव्य-प्रकाश' इह कस्य न सुप्रशस्यः ॥ दोषा गुणा ध्वनिरलङ्कृतयः समस्ताः शास्त्रान्तरीयमनुबन्धि तथाऽर्थतत्वम् । काव्य प्रकाश मुकुरे प्रतिबिम्बकल्पं प्राकाशि मम्मट बुधेन नवक्रमेण ॥ यत्सूरिभिर्निगदितं पदवाक्य-मान-शास्त्रेषु काव्य- सहकारि-विचार-हारि । स्फोटादिजैमिनि नयानुगतञ्च किञ्चिद्, बौद्धोदितश्च विनिवेदितमत्र युक्त्या ॥ सूक्ष्मेक्षिका- समधिगम्यमुपेय वस्तु, सूत्रात्मकैर्गुरु भीरगिरां प्रवाहैः । श्रास्वादयन् सहृदयानु विशदं यशः स्वं श्रीमम्मट: स्फटिकमन्दिरवच्चकार ॥ १ काव्यप्रकाश का टीका - साहित्य 'टीका, साहित्य की गूढ निधियों की कुञ्जी है' अथवा 'टीका गुरूणां गुरुः' जैसी महत्त्वपूर्ण सूक्तियों से टीकाओं का महत्त्वं सर्वविदित है । विचारों को परिष्कृत करके पाठकों तक पहुँचाने का कार्य टीका के माध्यम से प्रतिसरल हो जाता है । ग्रन्थकार जब जिस परिप्रेक्ष्य में ग्रन्थ की रचना करता है उसका स्थायी प्रभाव ग्रन्थ में चिरनिहित होता है, किन्तु समय के प्रवाह में ज्ञान का प्रवाह भी बढ़ता रहता है इस लिए प्रत्येक चिन्तक अपनी-अपनी दृष्टि से ग्रन्थकार की भावनाओं को उसके ग्रन्थ के आलोक में ही अभिव्यक्त करना चाहता है । यही कारण है कि संस्कृतसाहित्य के ग्रन्थों पर न केवल टीकाएँ ही हुई हैं अपितु कतिपय टीकाओं की प्रटीकाएँ भी बनती रही हैं, और ये टीकाएं 'टीक्यते गम्यते प्रन्थार्थीsनया' इस व्युत्पत्ति को सार्थक करती रही हैं । जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि - "काव्यप्रकाश-भावी भाष्य और व्याख्यानों का उद्गमस्रोत बना हुआ है" तदनुसार इस ग्रन्थ की अनेक टीकाएँ हुई हैं जिनका परिचय तथा इन टीकाकारों में जैन टीकाकारों का कितना, किस प्रकार का योगदान हुआ है ? इस दृष्टि से यहाँ संक्षेप में क्रमिक परिचय दिया जा रहा है । १. द्रष्टव्य - महामहोपाध्याय सर गङ्गानाथ झा कृत 'काव्य-प्रकाश' के अंग्रेजी अनुवाद ग्रन्थ में भूमिका भाग ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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