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________________ ५२ लोकप्रिय न होने से अनुमान किया गया है कि जयदेवच्छन्दस् के कर्ता जयदेव जैन ही हैं । इनका समय सन् ८९३ ई० माना जाता है । इस में पाठ अध्याय हैं जिनमें क्रमशः संज्ञा, गायत्री, अन्य वैदिकछन्द और लोकिक छन्दों का विचार किया गया है। इस पर निम्नलिखित ३ टीकाएँ हैं १. विवृति-मुकुल के पुत्र हर्षट (ई० सन् ११२४ से पूर्व) की यह विवृति है। जयदेव ने मूल में 'मुनि' और 'संतव' के मत का उल्लेख किया है। इसमें मुनि का अर्थ हर्षट ने पिङ्गल किया है । २-३-वृत्ति तथा टिप्पण--वृत्ति के निर्माता वर्धमान और टिप्पण के श्रीचन्द्र हैं। ३. छन्दोऽनुशासन-कन्नडी दि० जैन जयकीर्ति की यह रचना है। इस पद्यात्मक कृति में-जनाश्रय, जयदेव, पिङ्गल, पूज्यपाद, माण्डव्य और सैतव की छन्दोविषयक कृतियों का उपयोग किया गया है। इसमें '१. संज्ञा, २. समवृत्त, ३. अर्धसमवृत्त, ४. विषमवृत्ति, ५. आर्याजाति, मात्रा-समक जाति, ६. मिश्र, ७. कर्णाटविषय भाषाजाति और ८. प्रस्तारादि-प्रत्यय' नामक पाठ अधिकार हैं। यह रचना केदार के 'वृत्तरत्नाकर' तथा हेमचन्द्राचार्य के 'छन्दोऽनुशासन' के मध्यवर्ती काल की होने से बहुत महत्त्व की मानी जाती है। ४. छन्दःशास्त्र-'बुद्धिसागर-व्याकरण' के रचयिता श्री बुद्धिसागर सूरि (सन् १०२३ई. इसके भी रचयिता) हैं । इसका विशेष परिचय प्राप्त नहीं है। ५. छन्दःशेखर-इसके कर्ता राजशेखर (सन् ११२२ ई०) हैं। इसमें पांच प्रकरण हैं तथा प्रारम्भ के प्रकरणों में अपभ्रंश के छन्द तथा अन्तिम में संस्कृत छन्दों का निरूपण किया गया है। ६. छन्दोऽनुशासन-इसके निर्माता कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य हैं। यह पाठ अध्यायों में विभक्त है तथा इसमें ७६४ सूत्र हैं। इसके चौथे अध्याय में प्राकृत के सभी मात्रिक छन्दों का, पांचवे में अपभ्रंश के छन्दों का, छठे में षट्पदी और चतुष्पदी के प्रकार तथा सातवें में द्विपदी आदि का विचार अन्य पूर्ववर्ती ग्रन्थों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसीलिए यह कृति संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश इन तीनों भाषाओं के छन्दों का प्रातिनिध्य करती है। इस पर तीन टीकाएं इस प्रकार प्राप्त होती हैं १. स्वोपज्ञवृत्ति-जैनग्रन्थावली (पृ० ३१७) के अनुसार इसी का नाम 'छन्दश्चूगमरिण' है। इसमें मूल के अतिरिक्त भी छन्दोविषयक विभिन्न बातों को सोदाहरण स्पष्ट किया गया है । २. वृत्ति-मूल कृति अथवा उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति पर न्यायाचार्य श्री यशोविजयजी गरिण द्वारा इस वृत्ति के निर्माण का उल्लेख 'जैनग्रन्थावली' (पृ० १०७) में हुपा है। पर यह उपलब्ध नहीं है। ३. टीका-यह वर्धमान सूरि द्वारा निर्मित है। ७. रत्नमञ्जूषा-अज्ञात कर्तृक यह २३० सूत्रात्मक संस्कृत छन्दःशास्त्र है। इस पर किसी प्रज्ञातनामक की टीका भी है जो जैन द्वारा लिखित है । संज्ञा, अर्धसमवृत्त, मात्रासमक वर्ग (जिनमें नत्यगति और नटचरण का भी समावेश है), विषम वृत्त तथा अन्य वर्णवृत्तों का विचार आठ अध्यायों में यहाँ प्रस्तुत हमा है। इस कृति का भाष्यसहित सम्पादन प्रो० हरिदामोदर वेलणकर ने किया है तथा यह 'समाष्यरत्नमञ्जूषा' के नाम से 'भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी' से प्रकाशित हुई है। ६. छन्दोरत्नाबली-प्रायः विक्रम की तेरहवीं शती में वर्तमान 'वेणीकृपाण' श्रीप्रमरचन्द्रसूरि की ७००
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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