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________________ सम्पादन की विधि इसका सम्पादन १-मूल, २ वृत्ति, ३-टीका, ४-अनुवाद तथा ५-पाद टिप्पण से युक्त होने से पञ्चपाठी हुआ है। साथ ही विद्वत्तापूर्ण विविध जानकारी से युक्त परिश्रमपूर्वक लिखा गया उपोद्घात है, जिसमें पण्डितजी ने विस्तार से अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का परिचय, जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ, काव्यप्रकाश की विशिष्टता, इसकी अनेक टीकाओं का परिचय तथा प्रस्तुत टीका की समीक्षा दी है। इसके अतिरिक्त परिशिष्ट प्रादि से भी ग्रन्थ को अलङ कृत किया है। ___ कतिपय कठिन अथवा त्रुटित स्थलों के अनुसन्धान में तर्क-न्यायरत्न, सौजन्यमूर्ति, सहृदयी, विद्वद्वर्य पं. श्रीईश्वरचन्द्रजी शर्मा ने जो सहयोग दिया उसके लिये वे भी बहुत अभिनन्दन के अधिकारी हैं । प्रस्तुत टोका में क्या है ? काव्यप्रकाश के केवल दूसरे और तीसरे उल्लास पर प्रकाशित की गई इस टीका में पूज्य उपाध्यायजी ने 'काव्यगत शब्दार्थ स्वरूप-निरूपण' तथा 'अर्थव्यञ्जकता-निरूपण' से सम्बन्धित ऊहापोहों को नैयायिक शैली में प्रतिपादित करते हुए पूर्ववर्ती नौ टीकाकारों का (नामपूर्वक निर्देश करके) तथा प्रायः चौदह अन्य ग्रन्थकारों के मतों का विवेचेन किया है । इस विवेचन के प्रसङ्ग में उपाध्यायजी ने किसी तरह के साम्प्रदायिक दुराग्रह को स्थान नहीं दिया है अपितु तटस्थ रूप से ही अपने पूर्वगामियों के विविध मतों का उल्लेख करते हुए अपने मतों का उपस्थापन किया है और वह भी बहुत ही स्पष्टता के साथ किया है । कुछ प्रस्तुत कृति के सम्बन्ध में जैसा कि पहले कह गया हूँ उसके अनुसार पूज्य उपाध्याय जी के हस्ताक्षरवाली जो प्रति प्राप्त हुई उस प्रति में प्रारम्भ के १ से ६ पत्र नहीं हैं और सातवें पत्र से दूसरे और तीसरे उल्लास की टीका का प्रारम्भ हुआ है। अतः तर्क उठता है कि इन पूर्व पत्रों में क्या पहले उल्लास की टीका रही होगी जो कि उत्तरकाल में नष्ट हो गई होगी ? निर्णय करने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं है, किन्तु दूसरे ढंग से विचार करने से ऐसा भी लगता है कि "उपाध्यायजी का प्रिय विषय 'न्यायावतार' पुरुष होने से नव्यन्याय का हो रहा है तथा नव्यन्याय का उपयोग किया जा सके ऐसे लाक्षणिक उल्लास मुख्यरूप से द्वितीय और तृतीय ही हैं । अतः इन दोनों पर ही उन्होंने टीका की होगी" ऐसा मानने के लिये मन अधिक प्रेरित होता है। पाण्डुलिपि के प्रारम्भ के छः पृष्ठ उनकी किसी अन्य कृति के भी हो सकते है जो नष्ट हो गये होंगे अथवा इससे पृथक हो गये होंगे । जो हो सो हो । यदि हेमचन्द्राचार्यजी कृत 'काव्यानुशासन' पर उपाध्यायजी द्वारा रचित 'अलंकार-चूडामणि' टीका उपलब्ध हो जाती तो कदाचित् काव्यप्रकाश के प्रथम अथवा अग्रिम उल्लासों पर उन्होंने टीका बनाई थी अथवा नहीं ? इसका निर्णय करना सरल हो जाता। दूसरा दुर्भाग्य यह है कि उपाध्यायजी की कुछ कृतियों की एक से अधिक हस्तलिखित प्रतिलिपियाँ भी उपलब्ध नहीं होती हैं। पाण्डुलिपि परिचय ___दो उल्लासवाली एक पाण्डुलिपि पालीताणा जैनसाहित्य मन्दिर' में स्थित 'श्री मुक्तिक मल मोहन ग्रन्थभण्डार' से प्राप्त हई थी किन्तु वह बहुत ही अशुद्ध थी। ऐसी ही पाण्डुलिपि दूसरे भण्डार से
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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