SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम उल्लास-ध्वनि-गुरणीभूत व्यंग्य, संकीर्ण भेद निरूपरण षष्ठ उल्लास- शब्दार्थचित्र निरूपण सप्तम उल्लास-दोषदर्शन अष्टम उल्लास--- गुणालङ्कार भेद नियतगुण-निर्णय नवम उल्लास- शब्दालङ्कार-निर्णय दशम उल्लास- अर्थालङ्कार-निर्णय स्तुत्य प्रतिपादन शैली द्वारा मम्मट ने कारिका, सूत्रवृत्ति एवं उदाहरणों के द्वारा विषय को व्यक्त किया है । सूत्रात्मक शैली होने से अर्थगाम्भीर्य बहुत है। सूत्र में संक्षिप्तार्थ सूचक सीमित शब्दप्रयोग के कारण यह ग्रन्थ सदा क्लिष्ट और दुगम' प्रतीत हो यह स्वाभाविक है।। ___ इसमें कतिपय उदाहरण भी दुर्गम तथा दोषपूर्ण हैं और इसी कारण इसे समझने के लिए भिन्नभिन्न विद्वानों ने टीकाओं की रचना की है अतः टीकाओं की संख्या की मात्रा अद्भुत कही जा सके ऐसी संख्या पर पहुँच गयी हैं। मुझे लगता है कि संस्कृत में यह एक ही ग्रन्थ ऐसा होगा कि जिस पर सौ-सौ टीकाएं बनी हों! ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय देकर अब इसकी टीका के सम्बन्ध में विचार करते हैं। उपाध्यायजी द्वारा रचित प्रस्तुत टोका के सम्बन्ध में काव्यप्रकाश के केवल दो उल्लासों पर उपाध्यायजी द्वारा निर्मित प्रस्तुत टीका का उल्लेख जैन, अजैन किसी ने नहीं किया है। केवल कुछ जैन विद्वानों को ही जैन ज्ञानभण्डार से काव्यप्रकाश की प्रति उपलब्ध होने से उनको इसका प्राभास था अवश्य, किन्तु प्राप्त पाण्डुलिपि अत्यधिक खण्डित और अशुद्ध थी, इसकी प्रतिलिपियाँ भी हुई किन्तु वे भी वैसी ही हुई और अत्यधिक अशुद्ध होने के कारण ही इस कृति को प्रकाशित करने का उत्साह किसो का जागृत नहीं हुआ। नहीं तो अन्य कृतियाँ जिस प्रकार प्रकाशित हुई उसी प्रकार यह भी हो जाती। पुण्यात्मा पुण्यविजयजी द्वारा लिखित प्रेसकॉपी ऐसी स्थिति में मेरे सहृदयी प्रात्ममित्र, प्रखर संशोधक विद्वद्वर्य स्वर्गस्थ आगमप्रभाकर पुण्यनामधेय श्रीपुण्यविजयजी महाराज जिनका नश्वर देह इस धरती पर विद्यमान नहीं है और जिनको स्मृति माज भी हृदय को गद्गद कर देती है। जिनका मुझपर हार्दिक प्रेम तथा अकारण पक्षपात था और जो १. काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे टीका तथाप्येष तथैव दुर्गमः। सुखेन विज्ञातुमिमं य ईहते धीरः स एतां निपुणं विलोक्यताम् ॥ -टीकाकार महेश्वराचार्य २. सम्पादक-डा० श्री रुद्रदेवजी त्रिपाठी ने प्रायः समस्त टीकाओं और टीकाकारों का सुन्दर परिचय इस ग्रन्थ के 'उपोद्घात' में दिया है। उपाध्यायजी ने इनसे अधिक उल्लासों पर टीका निर्मित की हो, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है। उनकी अभिरुचि के विषयानुरूप महत्त्व के उल्लास ये दो ही थे। अनुमानतः ऐसा प्रतीत होता है कि काव्यप्रकाश के अन्य भाग का उन्होंने स्पर्श नहीं किया होगा।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy