SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ re में कल्पवृक्ष की शाखा के समान पल्लवित, पुष्पित एवं फलवती बन गई। तब से ही श्री यशोविजय जी महाराज विभिन्न शास्त्रों का स्वयं आलोडन करके उन पर टीका आदि का निर्माण और उत्तमोत्तम काव्य रचनाएँ करने लगे । शास्त्रार्थ एवं सम्मानित पदवीलाभ एक बार काशी के राज-दरबार में एक महासमर्थ दिग्गज विद्वान् -- जो अजैन थे— के साथ पू. उपाध्याय जी ने अनेक विद्वज्जन तथा अधिकारी वर्ग की उपस्थिति में शास्त्रार्थ करके विजय की वरमाला धारण की थी । उनके अगाध पाण्डित्य से मुग्ध होकर काशीनरेश ने उन्हें 'न्यायविशारद' विरुद से सम्मानित किया था। उस समय जैन संस्कृति के एक ज्योतिर्धर और जैन प्रजा के इस सपूत ने जैनधर्म और गुजरात की पुण्यभूमि का जय-जयकार करवाया तथा जैनशासन का अभूतपूर्व गौरव बढ़ाया । श्रागरा में न्यायशास्त्र का विशिष्ट अध्ययन काशी से विहार करके आप आगरा पधारे और वहाँ चार वर्ष रह कर किसी न्यायाचार्य पण्डित से तलस्पर्शी अभ्यास किया । तर्क के सिद्धान्तों में आप उत्तरोत्तर पारङ्गत होते गये । वहाँ से विहार करके गुजरात के अहमदावाद नगर में पधारे। वहां श्रीसंघ ने विजयी बनकर आनेवाले इस दिग्गज विद्वान् मुनिराज का पूर्ण स्वागत किया । श्रवधान प्रयोग तथा सम्मान उस समय अहमदाबाद में महोबतखान नामक सूबा राज्य कार्य चला रहा था। उसने पूज्य उपाध्याय जी की विद्वत्ता के बारे में सुनकर आपको ग्रामन्त्रित किया। सूबे की प्रार्थना पर आप वहाँ पधारे और १८ श्रवधान प्रयोग कर दिखाए। ' सूबा प्रापकी स्मृतिशक्ति पर मुग्ध हो गया । श्रापका भव्य सम्मान किया और सर्वत्र जैनशासन के जयजयनाद द्वारा एक अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया । उपाध्याय पद प्राप्ति वि० सं० १७१८ में श्रीसंघ ने तत्कालीन तपागच्छीय श्रमरणसंघ के अपरणी श्रीदेवसूरिजी से प्रार्थना की कि 'यशोविजयजी महाराज बहुश्रुत विद्वान् हैं और उपाध्याय पद के योग्य हैं। अतः इन्हें यह पद प्रदान करना चाहिए ।' इस प्रार्थना को स्वीकृत करके सं० १७१८ में श्रीयशोविजयजी गरणी को उपाध्याय पद से विभूषित किया गया । शिष्यसम्पदा की दृष्टि से उपाध्याय जी महाराज के अपने छह शिष्य थे, ऐसी लिखित सूचना प्राप्त होती है । २ उपाध्याय जी ने स्वयं लिखा है कि 'न्याय के ग्रन्थों की रचना करने से मुझे 'न्यायाचार्य' का विरुद विद्वानो १. इसी प्रकार श्री यशोविजयजी ने वि. सं. १६७७ में जैनसंघ के समक्ष आठ बड़े प्रवधान किए थे, जिसका उल्लेख उनकी हिन्दी रचना 'अध्यात्मगीत' में मिलता है । २. इन शिष्यों के नाम — हेमविजय, जितविजय पं. गुणविजयगणि, दयाविजय, मयाविजय, मानविजयगरिण आदि प्राप्त होते हैं ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy