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________________ संयम-साधना और धार्मिक शिक्षा पहले छोटी दीक्षा दी जाती है, बाद में बड़ी। अतः इस दीक्षा के पश्चात् बड़ी दीक्षा के योग्य तप किया। पूरी योग्यता प्राप्त होने पर उन्हें बड़ी दीक्षा दी गई। तदनन्तर गुरु नयविजयजी विहार करके अहमदाबाद पधारे । वहाँ विविध प्रकार का धार्मिक शिक्षण प्रारम्भ किया। तीब्र बुद्धिमत्ता के कारण वे तेजी से पढ़ने लगे। पढ़ने में एकाग्रता और उत्तम व्यवहार को देखकर श्रीसंघ के प्रमुख व्यक्तियों ने बालमुनि जसविजय में भविष्य के महान् साधु की अभिव्यक्ति पाई । बुद्धि की कुशलता, उत्तर देने की विलक्षणता आदि देखकर उनके प्रति बहुमान उत्पन्न हुआ, धारणा शक्ति का अनूठा परिचय मिला। वहाँ के भक्तजनों में 'धनजी सुरा' नामक एक सेठ थे। उन्होंने जसविजयजी से प्रभावित होकर गुरुदेव से प्रार्थना की कि 'यहाँ उत्तम पण्डित नहीं हैं अतः विद्याधाम काशी में यदि इन्हें पढ़ने के लिए ले जाएँ तो ये द्वितीय हेमचन्द्राचार्य जैसे महान और धुरन्धर विद्वान् बनेंगे।' इतना निवेदन करके धनजी भाई ने इस कार्य के लिये होनेवाले समस्त व्यय का भार उठाने तथा पण्डितों का उचित सत्कार करने का वचन भी दिया। विद्याधाम काशी में शास्त्राध्ययन गुरुदेव यशोविजय के साथ उत्तम दिन विहार करके परिश्रम-पूर्वक गुजरात से निकलकर दूर सरस्वतीधाम काशी में पहुँचे । वहाँ एक महान विद्वान् के पास सभी दर्शनों का अध्ययन किया । ग्रहण-शक्ति, तीवस्मृति तथा प्राश्चर्यपूर्ण कण्ठस्थीकरण शक्ति के कारण व्याकरण, तर्क-न्याय आदि शास्त्रों के अध्ययन के साथ ही वे अन्यान्य शास्त्रों की विविध शाखाओं के पारङ्गत विद्वान् भी बन गये। दर्शन-शास्त्रों का ऐसा आमूल-चूल अध्ययन किया कि वे 'षड्दर्शनवेत्ता' के रूप में प्रसिद्ध हो गये। उसमें भी नव्यन्याय के तो बेजोड़ विद्वान् बने तथा शास्त्रार्थ और वाद-विवाद करने में उनकी बुद्धि-प्रतिभा ने अनेक प्रमारण प्रस्तुत किये। वहाँ आपको अध्ययन करानेवाले पण्डितजी को प्रतिदिन एक रूपया दक्षिणा के रूप में दिया जाता था। सरस्वती-मन्त्र-साधना काशी में गङ्गातट पर रहकर उपाध्यायजी ने 'ऐकार' मन्त्र द्वारा सरस्वतीमन्त्र का जप करके माता शारदा को प्रसन्न कर वरदान प्राप्त किया था जिसके प्रभाव से पूज्य यशोविजय जी की बुद्धि तर्क, काव्य और भाषा के क्षेत्र १. 'यशोदोहन' में 'इस दीक्षा का समय वि. सं. १६६८ दिया है तथा यह दीक्षा हीरविजयजी के प्रशिष्य एवं विजयसेन सरि जी के शिष्य विजय देवसूरिजी ने दी थी' ऐसा उल्लेख है। देखो पृ. ७ । २. वहीं इसके लिए दो हजार चांदी के दीनार व्यय करने का भी उल्लेख है। ३. इस संबंध में वि. सं. १७३९ में स्वरचित 'जम्बूस्वामी रास' में स्वयं उपाध्यायजी ने निम्नलिखित पंक्तियाँ दो हैं शारदा सार दया करो, प्रापी वचन सुरंग। तू तूटी मुझ ऊपरे, जाप करत उपगंग॥ तर्क काव्यनो ते सदा, दीधो वर अमिराम । भाषा पण करी कल्पतरु शाखासम परिणाम ॥ इसी प्रकार 'महावीर स्तुति' (पद्य १) तथा 'अज्झत्तमतपरिक्खा' की स्वोपज्ञवृत्ति की प्रशस्ति (पद्य ३) मैं भी ऐसा ही वर्णन किया है।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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