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________________ ६६ काव्यप्रकाशः सा च जैमिनीयसूत्राच्च मीमांसकमतसिद्धं गौण्यामेव षड्विधत्वं मा प्रसाङ्क्षीदिति व्याचष्टे - आद्यभेदाभ्यां सहे 'ति तथा च शुद्धगौणरूपसकललक्षणामादाय षड्विधत्वम् । ननु गौणीमात्रे तत्सिद्धिसारूप्ययोर्यजमानः प्रस्तरः, आदित्यो वै यूप' इत्यनयोरेव, गौणसारोपाया 'अग्नि वै ब्राह्मण' इत्यस्य ब्रह्ममुखरूपैककारणोत्पन्नत्वात्मकजाति रूपसम्बन्धाच्छुद्धसारोपायाम् 'अपशवो वाऽन्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वा' इत्यस्य गवाश्वं प्रशस्तमन्येऽप्रशस्ता इत्यर्थकतयाऽर्थान्तरसङ्क्रमितवाच्यरूपोपादानलक्षणायां, 'सृष्टीरुपदधाति प्राणभृत उपदधाति' इति भूमलिङ्गसमवाययोः 'छत्रिणो यान्तीतिवदुपादानलक्षणायामेवान्तर्भावात्, यद्यपि गौणीपदेन लक्षणामेव ते वदन्ति, तथाप्युक्तप्रकारेण विभागोऽनुपपन्नः, तथाहि - तत्सिद्धिसारूप्ययोरेकत्वाद् एककारणकत्वरूप जातेर्भेदकत्वे एककार्यकत्वादेरपि तथात्वापत्तेः । अत एव सम्बन्धभेदमात्रेण भेदाभावान्न गौणीलक्षणयोरत्र भेदेनोपादानम्, अपशवो वेत्यत्र प्राशस्त्यरूपलक्ष्यतावच्छेदकभेदमात्रेण भेदस्वीकारे 'गङ्गायां घोषो' 'यमुनायां घोष' इसी तरह का एक जैमिनीय सूत्र है - " तत्सिद्धि जाति- सारूप्य प्रशंसा-लिङ्गसमवाया गुणाश्रयाः ।” आशय इसका यह है कि - तत्सिद्ध, जाति, सारूप्य, प्रशंसा, लिङ्ग और समवायरूप सम्बन्ध के कारण शब्द गौण अर्थ को बताता है । उदाहरण - ( १ ) तत्सिद्धि यजमानः प्रस्तरः (२) सारूप्य - आदित्यो वै यूपः । (३) जातिः - अग्नि ब्राह्मण: ( ४ ) प्रशंसा - अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वाः (५) भूमंसमवायसृष्टीरुपदधाति ( ६ ) लिङ्गसमवाय-- छत्रिणो यान्ति । इस तरह मीमांसक के मतानुसार गौणी के ही ६ भेद न समझ लिये जायं, इसलिए कारिका की व्याख्या करते हुए लिखा गया है "आद्यभेदाभ्यां सह " । इसका तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध और गौणीरूप सकल लक्षणा को लेकर ६ भेद बताये गए हैं। केवल गौणी के मीमांसक-मतसिद्ध ६ भेदों की चर्चा यहाँ नहीं है । प्रश्न उठाते हुए लिखते हैं कि तत्सिद्धि और सारूप्य के उदाहरण 'यजमानः प्रस्तरः' "आदित्यो वै ग्रुप :" इन दोनों का ही गौणीमात्र में अन्तर्भाव हो सकता है, गौणी सारोपा के दिये गए उदाहरण 'अग्निव ब्राह्मणः' इसका ब्रह्म-मुखरूप एक कारण से उत्पन्नत्वात्मक जातिरूप सम्बन्ध के कारण शुद्ध सारोपा में अन्तर्भाव हो सकता है। ‘अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः, पशवो गोऽश्वा:' इसका गो और अश्व प्रशस्त हैं और उनसे अन्य अप्रशस्त हैं, यह तात्पर्य होने के कारण अर्थान्तरसंक्रमितवाच्यरूप उपादान लक्षणा में अन्तर्भाव हो सकता है: भूमं और लिङ्ग समवाय के उदाहरण 'सृष्टीरुपदधाति' 'प्राणभृत उपदधाति' का 'छत्रिणो यान्ति' की तरह उपादान लक्षणा में ही अन्तर्भाव हो जाएगा। इस तरह गौणीवृत्ति का पूर्वोक्त कारिका में निरूपण करना और उसका ६ भेद करना व्यर्थं है । यदि आप यह कहें कि कारिका में गौणीपद से लक्षणा ही लिया गया है गौणी को अतिरिक्त नहीं माना गया है तो पूर्वोक्त प्रकार से विभाग करना गलत ही दिखाई पड़ता है। क्योंकि तत्सिद्धि और सारूप्य दोनों एक ही हैं । इनको परस्पर भिन्न प्रमाणित करने के लिए यदि एककारणकत्वरूप जाति को भेदक मानेंगे तो तुल्यन्याय से एककार्यत्वादिरूप जाति को भी भेदक मानना पड़ेगा । सम्बन्धभेद मात्र से भेद नहीं मानने के कारण गौणी और लक्षणा में यहाँ भेद नहीं माना गया है । " अपशवो वान्ये इस ( पूर्वोक्त वाक्य ) में प्राशस्त्यरूप लक्ष्यतावच्छेदक के भेदमात्र से भेद स्वीकार करने पर 'गङ्गायां घोष:' 'यमुनायां घोष:' इत्यादि गङ्गातीरत्व और यमुना तीरत्व में भेद के कारण लक्षणा में भेद
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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