SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय उल्लास : [ १७ ] लक्षणा तेन षड्विधा ॥ १२ ॥ ६५ आद्यभेदाभ्यां सह । उपसंहरति-लक्षणा तेनेति । ननु 'स्वसिद्धय' इत्यादिना प्रभेदचतुष्टयमेवोक्तम्, अतः कथं षड्विधेत्यत आह- श्राद्यमेवाभ्यां सहेति । उपादानलक्षणलक्षणाभ्यां सहेति, उपादानलक्षणाभ्यां सहेति बहवः । वयं तु - "तत्सिद्धिजातिसारूप्यप्रशंसालिङ्गभूमिभिः । षड्भिः सर्वत्र शब्दानां गौरणी वृत्तिः प्रकल्पिता ॥ १ ॥” इति पार्थसारथिमिश्रवचनात् " तत्सिद्धिजातिसारूप्यप्रशंसाभूमिलिङ्गसमवाया गुणाश्रयाः" इति गौणी के दो भेद माने गए हैं - ( क ) गौणी सारोपा (ख) गौणी साध्यवसाना। शुद्धा और गौणी दोनों के भेदों को मिलाने से लक्षणा के ६ भेद सिद्ध होते हैं। इसी बात को इस प्रकरण के उपसंहार के रूप में दिखाते हुए लिखते हैं- 'लक्षणा तेन षड्विधा" इसलिए लक्षणा ६ प्रकार की होती है । स्वसिद्धये इत्यादि कारिका के द्वारा चार प्रभेद ही बताये गये हैं । इसलिए वह ६ प्रकार की किस तरह हो गयी, इस बात को बताते हुए लिखते हैं कि "आद्यभेदाभ्यां सह" अर्थात् उपादान - लक्षणा और लक्षण - लक्षणा इन दो भेदों के साथ पूर्वभेदों को मिलाने से लक्षणा ६ प्रकार की हो जाती है । यह बहुतों का मत है । टीकाकार का मत - हम तो "आद्यभेदाभ्यां सह" इसका तात्पर्य इस प्रकार मानते हैं कि 'यह अधूरा वाक्य इस एक भ्रम को दूर करने के लिए लिखा है ; पार्थसारथि मिश्र ने गौणी वृत्ति के ६ भेद माने हैं । उनका वचन है कि— तत्सिद्धि-जाति- सारूप्य प्रशंसा-लिङ्ग-भूमिभिः षड्भिः सर्वत्र शब्दानां गौणी वृत्तिः प्रकल्पिता ।। अर्थात् तत्सिद्धि, जाति, सारूप्य, प्रशंसा, लिङ्ग और मूल रूप ६ सम्बन्धों के कारण होनेवाली शब्दों की वृत्ति को गौणी कहते हैं । जैसे "यजमानः प्रस्तरः" यहाँ प्रस्तर से ही यजमान के कार्यों की सिद्धि के कारण प्रस्तर में लक्षणा है । 'जाति' का अर्थ यहाँ 'जननेन या प्राप्यते सा जातिः हैं। इसका उदाहरण है 'अग्निवें ब्राह्मण: ।' यहाँ ब्रह्ममुखरूप एक कारण से उत्पन्नात्मक जातिरूप सम्बन्ध से लक्षणा हुई है। "आदत्यो वै यूपः " यहां यूप को आदित्य स्वरूप मानकर लक्षणा की गई है । "अपशवो वान्ये गो अश्वेभ्यः पशवो गोऽश्वाः" यहाँ गो और अश्व को प्रशस्त पशु कहा है । इसलिए यहाँ प्रशंसाश्रय लक्षणा है। भूमसमवाय का उदाहरण है 'सृष्टीरुपदधाति' और 'प्राणभृत उपदधाति । जहाँ अधिक प्राणी और कुछ अप्राणी हों, वहाँ प्राणियों के बाहुल्य को देखकर कहते हैं "प्राणाभूत उपदधाति" । छत्ररूप लिङ्ग (चिह्न) से युक्त कुछ और कुछ विना छत्ते के समुदाय को जो 'छत्रिणो यान्ति" कहते हैं इसका कारण लिङ्ग समवाय है ।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy