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________________ द्वितीय उल्लासः ८१ [सू० १४] सारोपाऽन्या तु यत्रोक्तौ विषयी विषयस्तथा । आरोप्यमाणः आरोपविषयश्च यत्रानपहनुतभेदौ सामानाधिकरण्येन निर्दिश्यते सा लक्षणा सारोपा। [सू० १५] विषय्यन्तः कृतेऽन्यस्मिन् सा स्यात् साध्यवसानिका ॥११॥ समानविभक्तिकारोप्यवाचकपदनिष्ठारोप्यतावच्छेदकप्रकारकारोपविषयोपस्थितिजनकलक्षणत्वं सारोपत्वम् अत्र वासाधारणधर्मप्रकारेणेत्यत्र साधारणधर्मप्रकारेणेतिकरणात् साध्यवसानलक्षणं ज्ञेयमिति, अत्र च विषय्यन्तःकृतेऽन्यस्मिन्नित्युपलक्षणं विषयेणान्तःकृते विषयिणीत्यपि द्रष्टव्यम्, 'कचतस्त्रस्यति यहां भी दोनों में समानप्रकारकता ही है। सीढ़ी, सन्यासी आदि के अनुभवक्षण में जो बोध हुआ था, उसमें सीढ़ी और सन्यासी आदि जिस तरह विशेषण बनकर भासित होते थे; उसी तरह उनके स्मरण क्षण में वे विशेषण बनकर भासित हो रहे हैं। इस तरह "गङ्गायां घोषः" यहाँ लक्षण-लक्षणा मानने पर गङ्गा का तटरूप में सर्वात्मना विलय मानना आवश्यक है तभी शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति होती है। यद्यपि शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति के लिए तट की प्रतीति तटत्वेन न मानकर गङ्गात्वेन मानी जाती है तथापि उस गङ्गात्व का अर्थ प्रवाह नहीं होता है। गङ्गार्थ और लक्ष्यार्थ तट में अभेद मानने के कारण ही शीतत्वपावनत्वातिशय की प्रतीति होती है। गङ्गाप्रवाह में घोष के होने से जिस शीतत्वातिशय और पावनस्वातिशय की सम्भावना थी, उसकी प्रतीति "गङ्गायां घोषः" कहने से हो जाती है। किन्तु "गङ्गातटे घोषः" कहने से वह प्रतीति नहीं हो पाती । "गङ्गायां घोषः" में गङ्गार्थ के तटार्थ में विलय हो जाने पर भी यहाँ यमुना तट की प्रतीति नहीं होगी, क्योंकि यह तट साधारण तट नहीं किन्तु मङ्गाप्रवाहाभिन्न तट है। यह प्रतीति लक्षणाजगत् में सदा अक्षुण्ण रहती है, तभी तो लक्ष्यार्थ का शक्यार्थ सम्बद्धन सिद्ध हो सकेगा; जो कि लक्षणा का लक्षण है। इस प्रकार मम्मट शुद्धा के (उपादान लक्षणा और लक्षण-लक्षणा) दो भेद करके शुद्धा ओर गौणी दोनों लक्षणा के सारोपा और साध्यवसाना दो-दो-भेद करके चार भेद दिखाना चाहते हैं। इसी सन्दर्भ में वे पहले सारोपा का लक्षण देते हैं और बाद में साध्यवसाना का। "सारोपान्या" तु० तथा "विषम्यन्तः” इत्यादि मूल सूत्रार्थ जहाँ आरोप्यमाण (उपमान) और आरोप विषय (उपमेय) दोनों शब्द से कथित होते हैं वहां दूसरी (गोणी)सारोपा- लक्षणा होती है। ... जहां उपमान का ही शब्दशः उपादान रहता है और उपमेय का अन्तर्भाव उपमान में ही विवक्षित रहता हैं वहां साध्यवसाना लक्षणा होती है-जैसे "चित्रं चित्रमनाकाशे कथं सुमुखि ! चन्द्रमाः।" यहाँ उपमेय मुख का शब्द से कथन नहीं है उसे वक्ता "चन्द्रमा" में अन्तर्भूत करके ही बोल रहा है- (यहाँ तक का पाठ खण्डित है अतः सन्दर्भ शुद्धि के लिए आवश्यक समझकर यह विनष्ट पाठ का अनुमानित अनुवाद दिया गया है।) असाधारणधर्मप्रकारेण समानविभक्तिक आरोप्यवाचक पदनिष्ठ जो आरोप्यतावच्छेदक-प्रकारक आरोप होगा तद्विषयक जो उपस्थिति, तज्जनक जो लक्षणा उसे सारोपा-लक्षणा कहते हैं । "गोर्वाहीकः" यहाँ तिष्ठन्मूत्रकरणत्वादि अथवा मूर्खतादि साधारण धर्म एक है “गौः" और 'वाहीक:' यहाँ विभक्ति भी समान है । इस
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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