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________________ ६० काव्यप्रकाशः ग्रन्थे सादृश्यसम्बन्धेन प्रवृत्तेरेवोपचारताप्रतीत्या तद्विरोधात्, गङ्गा घोषवतीत्यादावपि यथोक्तोपचारसत्त्वात् स्वरूपासिद्धेश्च । अत एवोद्देश्यविधेयभाव एवोपचार इत्यपि प्रत्यूक्तं, गोर्वाहीकयोः गौ: समानीयतामिति गौण्यामप्यु द्देश्यविधेयभावसत्त्वेन व्यभिचाराच्चेति । नन्वनुभवस्मरणयोः समानप्रकारकतानयत्येन गङ्गात्वप्रकारकतीरानुभवाभावेन कथं तादृशस्मरणं पदाद् भवतीति श्रद्धेयं, न च स्मरणस्यानुभवसमानप्रकारकस्यैव भिन्नप्रकारक................. ........ लक्षणा मानने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। क्योंकि "गङ्गातटे घोषः" इत्यादि से शक्ति के द्वारा ही उस अर्थ की सिद्धि हो जायगी। यह मधुमतीकारादि का मत है । परन्तु यह समीचीन नहीं है। क्योंकि "भेदाविमौ" इत्यादि बाद में लिखी गयी पङ्क्तियों से यही ज्ञान होता है कि सादृश्य सम्बन्ध से प्रवत्ति होना ही उपचार है। इसलिए पूर्वोक्त ग्रन्थ का उस उत्तरग्रन्थ से विरोध होता है। अतः यह मत समीचीन नहीं माना जा सकता। "गङ्गा घोषवती" यहाँ भी पूर्वोक्त उपचार का लक्षण घट जाता है इसलिए स्वरूपासिद्धि दोष है । जहाँ आप उपचार का लक्षण घट जाता है। इसलिए 'स्वरूपासिद्धिदोष' है; वहाँ उपचार मिश्रितत्व आ जाता है इसलिए उद्देश्य-विधेयभाव ही उपचार है यह भी उपचार का लक्षण नहीं माना जा सकता; क्योंकि गो और वाहीक में केवल गो को ही लेकर जब प्रयोग किया जायगा कि "गौः समानीयताम्" बल को लाइये तो यहां गो और बाहीक में क्रमशः गो उद्देश्य और वाहीक विधेय नहीं हैं और यहां गौणी लक्षणा तो है तो यहाँ पूर्वोक्त उपचार के लक्षण में व्यभिचार: अर्थात् अव्याप्तिदोष आ जायगा । इस तरह जो यह कहते थे कि उद्देश्य विधेयभाव ही उपचार कहलाता है; उनका कथन भी खण्डित हुआ। एक तो यह लक्षण "अग्निर्माणवकः" इस गौणी लक्षणा के उदाहरण में जैसे लागू होता है वैसे "गङ्गा घोषवती" इस शुद्धा लक्षणा के उदाहरण में भी घटता है इसलिए अतिव्याप्ति दोष है। दूसरी बात यह कि 'गां वाहीकमानय' यहां गौणी लक्षणा के उदाहरण में भी नहीं घटता क्योंकि यहां गो और वाहीक में उद्देश्यविधेयभाव नहीं हैं। "गोवाहीक" मिलित उद्देश्य है इसलिए "समानीयताम्" इत्यादि के प्रयोग गो में उद्देश्य और वाहीक में विधेयभाव ने होने के कारण लक्षण में व्यभिचार भी हो जायगा । ऐसा लक्षण ही क्या ? जो लक्ष्य में भी न घटे और लक्ष्येतर में घट जाय। अस्तु "" अनुभव और स्मरण दोनों निश्चित रूप से समान-प्रकारक हआ करते हैं अर्थात् यत्प्रकारक अनुभव है तत्प्रकारक ही स्मरण होगा। गोत्वप्रकारक अनुभव है तभी गोत्वप्रकारक स्मरण होगा। ऐसा नहीं कि अनुभव तो हो गोत्वप्रकारक याने गाय का हो और स्मरण हो गजत्व-प्रकारक याने हाथी का। इस तरह जब आज तक किसी को गङ्गात्व प्रकारक तीरानुभव नहीं हुआ है, सब को तीरत्वप्रकारक तीर का ही अनुभव हुआ है तो "गङ्गायां घोषः" यहाँ गङ्गापद से गङ्गात्व-प्रकारक तीर की स्मृति (उपस्थिति) कैसे होगी.........? (यहाँ पूर्वापर सन्दर्भ को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि खण्डित भाग का प्रतिपादन-विषय यों रहा होगा) जैसे आपने पूर्वोक्त उदाहरणों के द्वारा स्मरण और अनुभव को समान-प्रकारक सिद्ध किया है; उसी तरह अन्य उदाहरणों के द्वारा उन्हें भिन्न-प्रकारक भी सिद्ध किया जा सकता है :-जैसे कोई वाराणसी का नाम ले और उसे सुनकर श्रोता को वहाँ की सीढ़ी, सन्यासी, और साँढों का स्मरण हो जाय; तो इस स्मरण में और शब्दश्रवणजन्यप्राप्त अर्थबोध रूप अनुभव में समानप्रकारकता नहीं होगी, क्योंकि वाराणसी पद के सुनने से जिस अर्थका बोध और अनुभव हुआ है। उसमें प्रकार (विशेषण) है वाराणसी शहर और स्मरण में प्रकार है सीढ़ी, सन्यासी आदि, ऐसा नहीं कहना चाहिए, १. अत्रापि मूलप्रती पाठः खण्डितः । स च पाण्डुलिप्यां लिखितषटपष्ठात्मकः । अत एव सन्दर्भसंयोजनाय भाषानूवादे सम्भावितपाठानुवादः कल्पितः । सं०
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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