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________________ काव्यप्रकाशः ~ ___ हिमपयःशखाद्याश्रयेषु परमार्थ तो भिन्नेषु शुक्लादिषु यद्वशेन शुक्ल: शुक्ल नेषामेकत्वमिति भेदप्रत्ययमन्यथा समर्थयति-आश्रयभेदादिति व्याचक्ष्महे । __ जातिपदार्थवादिनां मतमाह-हिमपय इति । वस्तुतो 'गौः शुक्ल' इत्यादिना न सम्मतिप्रदर्शनम्, अपि तु उपसंहारः, कस्येदं मतमित्याशङ्कायामुक्तम्, –'इति महाभाष्यकारः' इति, तेन परमाण्वादीत्याद्यारभ्यैव जातिशक्तिवादिनां मतम्, एकरूपाणां जातिशक्तत्वेन जातिशब्दात्मकानाम् । ननु तहि कथं शब्दचातुर्विध्यमित्यत आह-आश्रयभेदादिति । तथा च जातिरेव शक्या परन्तु यत्र गुणवृत्तिर्जातिस्तथा' तत्र गुणशब्दत्वम् । एवं क्रियायद च्छाशब्दयोरपीत्यर्थः । परमार्थत इति । शुक्लगुणवर्ती होने के कारण जाति नहीं मान सकते और इस प्रकार शुक्ल शब्द जातिवाचक नहीं माना जा सकता। यदि आप कहें कि हिम, दूध और शंखादि में दिखाई पड़नेवाली सफेदी एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होती है इसलिए शुक्लादि गुण को सर्वत्र एक मानना ठीक नहीं है, तो इसका उत्तर होगा कि भेद प्रतीति का कारण कुछ और है यही दिखाते हुए लिखा गया है कि "आश्रयभेदात्" अर्थात् यह भेद-प्रतीति आश्रय के भेद के कारण है; वस्तुभेद के कारण नहीं। मीमांसादर्शन-सम्मत 'जाति' रूप एकविध सङ्केतित अर्थ का विश्लेषण जाति को ही पदार्थ मानने वालों का मत लिखते हुए कहते हैं-हिमपयःशङ्खाद्याश्रयेषु० । वस्तुतः मूल में लिखित "गौः शुक्लश्चलो डित्थः" इत्यादि वाक्य से सम्मति नहीं दिखायी गई है किन्तु पूर्वमत का-(जात्यादिचतुष्टयवाद का) उपसंहार दिखाया गया है। यह मत किसका है इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है-इति महाभाष्यकारः अर्थात् यह मत महाभाष्यकार का है। इसलिए "परमाण्वादीनान्तू' यहां से ही जाति में शक्ति माननेवालों के मत का प्रारम्भ मानना चाहिए। (इस मत में) 'एकरूपाणाम्' का तात्पर्य है जाति में शक्ति मानने के कारण जाति-शब्दात्मक अर्थात् जाति शब्दों का । - ऐसा मानने पर शब्द के चार भेद कैसे होंगे? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए कहते हैं-'आश्रयभेदात्' अर्थात् आश्रय के भेद से शब्द के चार भेद सिद्ध होंगे। इस प्रकार जाति में ही शक्ति मानेंगे अर्थात जाति को ही शक्यार्थ रूप में स्वीकार करेंगे परन्तु जहां गुणवृत्ति जाति (शुक्लत्वादि) को शक्यार्थ मानेंगे, वहाँ गुणशब्दत्व माना जायगा-शुक्लत्व जाति के शक्यार्थ होने पर शुक्ल शब्द माना जायगा इसी प्रकार क्रिया और यहच्छाशब्द में भी (मानना चाहिए) । अर्थात् जहाँ पाकादिक्रियावर्ती पाकत्व-सामान्य में शक्ति मानी जायगी वहां 'पचति' इत्यादि को क्रियाशब्द मानेगे इस प्रकार जहाँ यहच्छासंज्ञाशब्दवर्ती डित्यत्वादि सामान्य में शक्ति रहेगी वह यदृच्छाशब्द होगा। सन्दर्भ का अर्थ यह है कि जातिवाद की भूमिका "हिमपयःशलाद्याश्रयेषु" इत्यादि पक्ति से नहीं किन्तु "परमाण्वादीनाम्" इस पङ्क्ति से ही प्रारम्भ की गयी है । (मीमांसक जाति, गुण, क्रिया और यहच्छा इन चारों में शक्ति न मानकर केवल जाति में ही शक्ति मानते हैं।) "हिमपयःशङ्खाद्याश्रयेषु" इत्यादि पङ्क्ति में जातिमात्र में शक्ति मानने का ही प्रतिपादन किया गया है। 'हिम-पयः' इत्यादि मूल अनुच्छेद का अर्थ बर्फ, दूध और शङ्ख आदि आश्रयों में रहनेवाले वास्तव में भिन्न (अर्थात् प्रथम मत में जैसा कहा गया है उसके अनुसार एक रूप नहीं) शुक्ल आदि गुणों में (यद्वशेन) जिनके कारण 'शुक्ल:शुक्ल" इस प्रकार के अभिन्न १: शक्या।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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