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________________ द्वितीय उल्लासः AMMAR namainamummmmmmmmmunmaAAAA गुण-क्रिया-यदृच्छानां वस्तुत एकरूपाणामप्याश्रयभेदाद् भेद इव लक्ष्यते । यथैकस्य मुखस्य खड्ग-मुकुर-तैलाद्यालम्बनभेदात् । स्याताम् । स्फोटे चैक्यं स्फुटमेव साधितम् । वर्णानामपि नित्यत्वं स एवायं गकार' इत्यादि प्रत्यभिज्ञासिद्धमिति । ननु यदि नित्या एकैका एव गुणादयो विनाशादिबुद्धिश्च सम्बन्धगोचरा तदा कथं भेदबुद्धिरित्यत आह-प्राश्रयेति, द्रव्यव्यापारवर्णरूपाश्रयभेदादित्यर्थः । तथा चान्यथासिद्धा बुद्धिर्न भेदे मानमित्याशयः। वयं तु-ननु सामान्यवाचकशब्दानामिव गुणादिवाचकशब्दानामपि परम्परया जातिरेव शक्याऽस्त्वित्यत आह- गुणेति, तथा चैकव्यक्तिवृत्तित्वेन न शुक्लत्वादीनां जातित्वम्, ननु भेदप्रत्ययादेव लिए वह जातिवाचक शब्द है । गुण का तो कोई अवयव नहीं है, इसलिए वह अनुगत-संस्थान मात्र व्यङ्गय नहीं है। गुण अवयव और अवयवी दोनों में रहता है, जाति केवल अवयवी में ही रहती है। जैसे रक्तगुण तन्तु (धागे) में है और कपड़े में भी है। इनमें पहला अवयव है और दूसरा अवयवी । गुण में गोत्व की अपेक्षा परभाव माना गया है। गोत्व जाति गाय में जन्म के साथ ही प्रादुर्भूत हुई है। इसलिए वह अपरभाव है; गुण बाद में उत्पन्न हुमा है इसलिए अपरभाव है। यदि दोनों को नित्य, एक और अनेकानुगत मानें तब तो दोनों के सहभाव के कारण कौन किसका 'पर' और कौन किसका 'पूर्व' होगा? इसलिए गुण जाति नहीं है। इसी तरह अधिश्रयणादि. उन-उन व्यापारों से व्यङग्य और उन-उन व्यापारों से अनूगत क्रिया भी एक ही है। इसलिए एक व्यापार (जैसे फूकना) के बिना भी पचति इत्यादि का प्रयोग होता है और उससे ज्ञान भी होता है। अन्यथा फूकना, चूल्हे पर रखना आदि कार्यों के शीघ्र विनष्ट हो जाने के कारण उन व्यापारों का एक साथ मेल न होने से पचति शब्द का न प्रयोग होता और न उससे बोध ही सम्भव था। स्फोट में तो उन सब की एकता स्पष्ट सिद्ध कर दी गई है । (स्फोटात्मक) वर्ण भी नित्य हैं इसी लिए लोग कहते हैं “स एवायं गकारः यः गरुडे स एव गणेशे।" यह प्रत्यभिज्ञा वर्ण की नित्यता प्रमाणित करती है । .... यदि गुणादि नित्य, एक है; 'गुण में विनाशबुद्धि गुण के अनित्य होने से नहीं किन्तु उस गुण से सम्बद्ध समवाय के अनित्य होने के कारण से उत्पन्न होती है, यह मानें तो 'दूध की सफेदी शंख की सफेदी से भिन्न है इस प्रकार की भिन्नता की प्रतीति क्यों होती है, ऐसा प्रश्न सहज में उठ सकता है इसके उत्तर के लिए ही वृत्ति में "आश्रयभेदात्' इत्यादि पद दिया है । तात्पर्य यह है कि 'गुण, क्रिया और यदृच्छा में जो भेद प्रतीत होता है उसका कारण द्रव्यरूप, व्यापाररूप और वर्णरूप आश्रयों का भेद है।' अर्थात् जिन द्रव्यों में गुण रहता है, उन द्रव्यों के भेद के कारण गुण (शुक्लादि) में भेद प्रतीत होता है । फूत्कार, गमन आदि व्यापार-भेद के कारण क्रिया भिन्न प्रतीत होती है। डित्थ, डवित्थ आदि वर्ण भिन्न होने के कारण अथवा बालवृद्ध -शुकादि उच्चारित डित्य शब्द में भेद होने के कारण उसमें भेद की प्रतीति होती है। इस तरह अन्यथासिद्ध बुद्धि (भेदबुद्धि) भेद में प्रमाण नहीं हो सकती। 'वयं तु' इत्यादि (टीकार्थ) टीकाकार श्री मुनि जी कहते हैं कि-'हम तो यहां यह कहना चाहेंगे कि सामान्य वाचक गोत्वादि शब्दों की तरह गुणादिवाचक शुक्लादि शब्दों का अर्थ भी जाति (शुक्लत्व) ही परम्परा-सम्बन्ध से माने तो क्या दोष होगा?' यही बताने के लिए "गुणक्रियायदृच्छानाम्" इत्यादि पंक्ति लिखी गयी है और बताया गया है कि हिम, दूध और शंखादि आश्रयभेद से ही शुक्लादिगुणभिन्न प्रतीत होते हैं; वे वस्तुतः एक ही हैं। इस तरह शुक्लत्व-धर्म को एक
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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