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________________ काव्य-प्रकाश की प्रस्तुत टोका के प्रधान सम्पादक मुनि श्रीयशोविजयजी महाराज (संक्षिप्त जीवन-दर्शन) जन्म एवं परिवार गुजरात की प्राचीन दर्भावती नगरी प्राज मोई' (जिला बड़ोदा) नाम से प्रसिद्ध है। इस ऐतिहासिक नगरी में वि० सं० १९७२ की पौष शुक्ला द्वितीया के दिन बीसा श्रीमाली जाति के धर्म-परायण सुश्रावक 'श्री नाथालाल वीरचन्द शाह' के यहाँ पुण्यवती 'राधिका बहन' की कुक्षि से आपका जन्म हुमा। आपका नाम 'जीवनलाल' रखा गया। पापके तीन बड़े भाई और दो बड़ी बहिनें थीं। प्रापके जन्म से पूर्व ही पिता परलोकवासी हो गए थे। पाँच वर्ष की आयु में माता का भी स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार बाल्यावस्था में माता-पिता की छत्रछाया उठ गई थी, किन्तु ज्येष्ठ बन्धु नगीनभाई ने बड़ी ही ममता से मापका लालन-पालन किया, अतः माता-पिता के प्रभाव का आपको अनुभव नहीं हुआ। विद्याभ्यास तथा प्रतिभा-विकास प्राप पांच वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रविष्ट हुए और धार्मिक पाठशाला में भी जाने लगे। नौ-दस वर्ष की प्राय में संगीत-कला के प्रति मुख्यरूपेण आकर्षण होने के कारण सरकारी शाला और जैनसंघ की ओर से चल रही संगीत-शाला में प्रविष्ट हुए तथा प्रायः ६-७ वर्ष तक सङ्गीत की अनवरत शिक्षा प्राप्त करके संगीतविद्या में प्रवीण बने। आपकी ग्रहण और धारण-शक्ति उत्तम होने से दोनों प्रकार के अभ्यास में मापने प्रगति को। सुप्रसिद्ध भारतरत्न फैयाजखान के भानजे श्री गुलाम रसूल प्रापके संगीत-गुरु थे। पापका कण्ठ बहुत ही मधुर था भोर गाने की पद्धति भी बहुत अच्छी थी, अतः आपने संगीतगुरु का अपूर्व प्रेम सम्पादित किया था। जैनधर्म में पूजामों को विशिष्ट स्थान प्राप्त है। इन पूजामों में 'सित्तर भेदी पूजा' उसके विभिन्न ३५ रागरागिनियों के ज्ञान के साथ प्रापने कण्ठस्थ कर ली तथा प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समस्त पूजाओं की गीत-पद्धति भी सुन्दर रागरागिनी तथा देशी-पद्धतियों में सीख ली और साथ ही साथ गाने की उत्तम प्रक्रिया भी सम्पादित की। विशेषत: नत्यकला के प्रति भी आपका उतना ही माकर्षण था, अतः उसका ज्ञान भी प्राप्त किया और समय-समय पर विशाल पूजा समारोहों में उसके दर्शन भी कराए। इस प्रकार व्यावहारिक तथा धामिक शिक्षण और संगीर एवं नत्य कला के उत्तम संयोग से प्रापके जीवन का निर्माण उत्तम रूप से हरा और आप उज्ज्वल भविष्य की झांकी प्रस्तुत करने लगे। परन्तु इसी बीच ज्ञानी सदगुरु का योग प्राप्त हो जाने से आपके अन्तर में संयम-चरित्र की भावना जगी और आपके जीवन का प्रवाह बदल गया, इसमें भी प्रकृति का कोई गूढ संकेत तो होगा ही ? भागवती दीक्षा और शास्त्राभ्यास वि० सं० १९५७ की अक्षय तृतीया के मङ्गल दिन कदम्बगिरि की पवित्र छाया में परमपूज्य प्राचार्य श्री
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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