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________________ १२४ जिस तरह नायिका के कटाक्ष भले ही बालकों के लिए प्रमोदावह न हों, लेकिन युवकों के लिए वे अवश्य प्रमोददायी होते हैं। न्यायशास्त्र की सतत चर्चा करने से श्री उपाध्यायजी की बुद्धि भी ऐसी कुशाग्र हो गई थी कि जिससे प्रत्येक स्थल में स्वतन्त्र और गम्भीर विचार करना उनके लिए हस्तामलक जैसा हो गया था। 'तथाभूतां दृष्ट्वा' इस श्लोक में भी 'पत्र प्रश्नरूपव्यङ्ग्यस्य व्यञ्जकत्वे व्यङ्ग्यार्थव्यञ्जनोदाहरणमपीदम्, मयीत्यस्य निरपरावे कूरुष्वित्यस्य सापराधेष्विति लक्षरण्या पदार्थ लक्ष्यस्यापि व्यञ्जकत्वं बोध्यम् ।' (प०१६०) इस कथन से निरपराध मैं और सापराध कौरव के अर्थ को लक्षणा के द्वारा प्रकट करने के कारण दोनों पदों को प्रर्थान्तर में संक्रमित बताते हुए पदार्थ में लक्ष्यार्थ-व्यञ्जकता का भी उदाहरण होने की सम्भावना की है। इसी प्रकार वाक्यवैशिष्ट्य' में व्यञ्जना का उदाहरण तइया' इत्यादि गाथा और 'वाच्यवैशिष्ट्य' में व्यञ्जना का उदाहरण उद्देशोऽय' इत्यादि पद्य को व्याख्याओं में श्रीउपाध्यायजी ने विषय को स्पष्ट करने का पूरा प्रयत्न किया है। 'गोल्लेइ प्रपोल्लमरणा' इत्यादि 'अन्यसन्निधि के वैशिष्ट्य' में दिये गये व्यञ्जना के उदाहरण पर संक्षिप्त किन्तु मार्मिक उद्भावना की गई है (द्रष्टव्य-पृ० १६३) । देशवैशिष्ट्य एवं कालवैशिष्ट्य में दिये गये व्यञ्जना के उदाहरणों पर बड़ी ही उत्तम पद्धति से विषय के अन्तरङ्ग तत्वों को प्रस्फुटित करते हुए व्याकरण-शास्त्र के पाण्डित्य की भलक प्रस्तुत की गई है। (पृ० १६४-६५) । प्रादि पद से ग्राह्य चेष्टा के व्यञ्जकत्व का उदाहरण 'द्वारोपान्तनिरन्तरे' इत्यादि पद्य भी टीकाकार की पालोचना का विषय बना है। इसकी व्याख्या में 'इति कश्चितू' और 'इत्यन्ये' कथन के द्वारा अन्य टीकाकारों का अभिप्राय उपस्थापित करके 'वयं तु-प्रोल्लास्पेत्यनेन त्वदागमनेन ममोल्लासो जातः' यहाँ से प्रारम्भ कर 'तेन च मरणशपथस्तव यदि न समागम्यते भवतेति व्यज्यते- इति पश्यामः' इस व्याख्यांश (पृ. १६८) द्वारा स्वयं का अभिमत प्रदर्शित किया है। इसी प्रकार प्रार्थी व्यञ्जना में शब्द की सहकारिता के प्रतिपादन को लक्ष्य में रखकर भी उपाध्यायजी ने मधमतीकार एवं परमानन्द प्रादि टीकाकारों का मत उपस्थित किया है । तथा अन्त में "घयतनन् यद्यत्र शब्दस्य न व्यजकत्वं तदा" (पृ.१७३) इत्यादि से प्रारम्भ कर "इति व्याचक्ष्महे" (पृ.१७४) तक अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया है। टीकाकार का दायित्व-निर्वाह उपर्युक्त पर्यालोचन से एक बात भली भाँति स्पष्ट हो जाती है कि उपाध्यायजी में वे सभी गुण विद्यमान जो कि एक अच्छे टीकाकार में अपेक्षित होते हैं। "विषय का ज्ञान, समझाने की क्षमता, भाषा पर पूर्णाधिकार, गवेषणात्मक दृष्टि, नई सूझ-बूझ,, सत्य के प्रति पक्षपात, ग्रन्थकार के प्रति प्रास्था, मालोचना में स्पष्टवादिता और कर्तव्य के प्रति जागरूकता" जैसे सभी गुणों का सन्निनेश उपाध्यायजी की इस टीका में सहज परिलक्षित हो जाता है और उपर्यक्त विशद-विवेचन इन गुणों के साक्षित्व के लिए सदा उपस्थित-सा प्रतीत होता है। इन्हीं के आधार पर श्रीमद उपाध्याय जी महाराज ने अपने दायित्व का समुचित निर्वाह भी किया है जिसे हम संक्षेप में उक्त रूप में परिज्ञात कर सकते हैं। टीका को विशेषताएं और प्रस्तुत टोका टीका-निर्माण का भी एक स्वतन्त्र शास्त्र है। प्रत्येक विद्वान् इस कार्य में सफल भी नहीं होता। ग्रन्थावगम मात्र के लिये लिखी जानेवाली 'टोक्यते गम्यते ग्रन्थार्थोऽनया' की पूरक टीकाएं तो सर्वसाधारण रूप से लिखी जाती ही हैं। किन्तु 'टीका गुरूणां गुरुः' की उक्ति को चरितार्थ करनेवाली टीकामों का महत्त्व अधिक है। उनकी
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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