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________________ उनका व्याख्यान करते हुए अभिधा-नियन्त्रण के विषय में अपना मत स्वतन्त्र प्रदर्शित किया है। यदि अभिधा नियन्त्रण का अभिधाविषयक अग्रह अर्थ करें? तो यह अर्थ संगत नहीं है। कोशादि से द्वितीय अर्थ में अभिधा का ग्रह . हो सकता है और द्वितीय अर्थ में अभिधाग्रहाधीन संस्कार की उत्पत्ति न होना भी नियन्त्रण पदार्थ नहीं कह सकते है। वितीय अर्थ में अभिधाग्रहोत्तर प्रकरणादि का प्रभाव होने पर द्वितीयार्थ में अभिंघाग्रहाधीन संस्कार होने में कोई बाधक नहीं है । इसलिए “मत्र खूमः-अप्रकृताधर्थगोचराभिधाजन्यशाग्दधबोधत्वमेव प्रकरणाविप्रतिबध्यता. बच्छेदकं...' (पृ. १३३) इत्यादि अप्रक्रान्तद्वितीयाद्यर्थविषयक प्रभिधाधीन शाब्दबोध न होना ही अभिधानियन्त्रण है" इस तरह का अभिनव परिष्कार उपाध्यायजी महाराज ने किया है। संयोग आदि शब्दों का छोटे शब्दों में उन्होंने कितना सुन्दर परिष्कार किया है । उदाहरण१. संयोगो-गुणविशेषः। .. २. विप्रयोग:-संयोगध्वंसो विभागो वा । ३. साहचर्यम्-एककालदेशावस्थायित्वम्, एकस्मिन् कार्ये परस्परसापेक्षत्वं वा।' . ४. विरोधिता-बघ्यघातकभावः सहानवस्थानं च' । ५. अर्थः-प्रयोजनम् । ६. 'प्रकरणं-वक्तृश्रोतृबुद्धिस्थता।' ७. लिङ्ग-संयोगातिरिक्तसम्बन्धेन परस्परव्यावर्तको धर्मः।' ८. शब्दस्यान्यस्य संनिधिः-समासाद्यनधीनसमानार्थकताकशब्दान्तरसमभिव्यवहारः । ६. सामर्थ्यम्-कारणता।' १०. 'नौचिती-योग्यता'। १२. 'देशकालो-प्रसिद्धौ'। १३. व्यक्ति:-लिङ्गं पुंस्त्वादि । १३. स्वरावयः- उदात्तादिः इत्यादि । इनका अर्थ स्पष्ट है। पुनश्च-अभिधामूला व्यंजना और श्लेष इन दोनों का भेद 'तस्मादभिधानियामक-संयोगाद्यमावे श्लेषः, तत्सत्त्वे व्यजनेत्येव परमार्थः।' (पृ० १४०) इस वाक्य से इस तरह प्रदर्शित किया है-जहाँ अभिधावृत्ति का नियन्त्रण करनेवाला सयोगादि पदार्थ हैं। वहां द्वितीयार्थबोधक अभिधामूला व्यंजना है और और जहाँ अभिधानियन्त्रण करनेवाले संयोगादि नहीं हैं वहाँ श्लेष मानना चाहिए। १. वाच्य २. लक्ष्य और ३. व्यङ्ग्य ये तीन तरह के अर्थ होते हैं और उनके प्रतिपादक १. वाचक २. लाक्षणिक तथा ३. व्यञ्जक इस प्रकार तीन तरह के शब्द होते हैं। विशेषता यह है कि व्यञ्जक, शब्द की तरह अर्थ भी हो सकता है। उसमें भी त्रिविध अर्थ-वक्ता एवं बोद्धव्य आदि के वैशिष्ट्य से व्यङ्ग्यार्थव्यंजक हो सकता है। किन्तु व्यंग्यार्थप्रतीति, वक्ता आदि के वैशिष्ट्य रहने पर भी प्रतिभाशाली सहृदय विद्वान् को ही हो सकती है। इसलिए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रस्तावदेशकालादेवैशिष्ट्यात् प्रतिभाजुषाम् । योऽयस्यान्यार्थीहेतुापारो व्यक्तिरेव सा ॥ (सू० ३७ पृ० १४६)
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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