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________________ १६ नियमद्वयबलाल शैत्यादिविशिष्टे लक्षणा तदा वीरत्वादिविशिष्टेऽपि सा मास्तु, प्राकाशपदाच्छाश्रयत्वादेरिव तीरत्वा. देरपि वृत्ति विनवोक्तनियमद्वयबलादेव भानोपपत्तेरित्यत पाह-विशिष्ट इति तीरत्वादिविशिष्टे इत्यर्थः । एवं नियमयस्वीकार इत्यर्थः, तथा चेष्टापत्तिरेवावेति भावः । (पृ० १२५) इस तरह के व्याख्यान से अपना अभिनव सिद्धान्त उपस्थित किया है । उनका अभिप्राय यह है कि 'यद्धर्मावच्छिन्नतयोपस्थितस्यैव यत्र शक्यसम्बन्धग्रहस्तत्र तद्धर्मप्रकारकएवं शाब्दबोधः, यच्छन्दाभिषाजन्योपस्थितौ यत्र यः प्रकारतया भासते तच्छन्दवृत्तिलक्षणाजन्योपरिथतावपि तत्रस एवेप्ति नियमो वा' इस वाक्य से पहले ही दो नियम दिखाये है पहला नियम-जिस रूप से उपस्थित अर्थ में सङ्कतग्रह होता है उसी रूप से उस अर्थ का शाब्दबोध में भान होता है। उदाहरण-'घटत्वादि रूप से उपस्थित घटादि अर्थ में घटादि पद का सतग्रह होता है। उस घटत्वादि रूप से ही घटादि अर्थ का 'घटोऽस्ति' इत्यादि वाक्यों से होनेवाले शाब्दबोधों में भान होता है।' २. दूसरा नियम-जिस शब्द की अभिधावृत्ति से उपस्थित प्रर्थ में जो धर्मप्रकार होता है वही उस शब्द को लक्षणावृत्ति से जन्य शाब्दबोध में भी प्रकार होता है। जिस तरह गङ्गाशब्द की अभिधा से उपस्थित स्रोतोविशेष अर्थ में स्रोतस्त्व प्रकारीभूत धर्म है। इसलिए गङ्गावृत्ति से होनेवाले शाब्दबोध में भी स्रोतस्त्वरूप से ही स्रोत अर्थ का भान होता है। इस प्रकार के दोनों नियम मान लेने पर शैत्यादिविशिष्ट तीर अर्थ में लक्षणा नहीं मानी जायगी तो तीरत्वविशिष्ट अर्थ में भी लक्षणा मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। जिसके लिए इष्टापत्ति है, इत्यादि व्याख्यान अभिनव ही है। तथा अभिधा, तात्पर्याख्या और लक्षणा इन तीनों वृत्तियों से व्यञ्जना को विलक्षण बताते हुए व्यञ्जनावृत्ति का नामान्तर 'तच्च ध्यजन-ध्वनन-द्योतनादिशब्दवाच्यमवश्यमेषितव्यम्' (पृ० १२६) इस अंश से व्यञ्जना का व्यंजन ध्वनन इत्यादि नामकरण बताया है। उस विषय में तथा च प्रतीत्यनुपपत्त्या साधिते वस्तुनि विवादाभावान्नाम तस्य किमपि क्रियतां तत्र नास्माकमाग्रहः (पृ० २३०) इत्यादि से यों बताया है कि व्यङ्ग्यप्रतीति सर्वानुभव सिद्ध है। व्यङग्य की सत्ता का लोप कथमपि सम्भव नहीं है। उसका नाम यदि व्यञ्जना भी करते हैं तो उसमें कोई दोष नहीं है। यहाँ उपाध्यायजी महाराज ने व्यजना में अर्थापत्ति प्रमाण स्वतन्त्र रूप से उपस्थित किया है। उनका अभिप्राय यह है कि "स्वाधीन शब्दप्रयोग होने पर भी प्रवाचक शब्द का क्यों प्रयोग होता है। इसलिए 'गङ्गायां घोषः' इत्यादि वाक्यों में 'गङ्गातटे' इस शब्द की जगह 'गङ्गायां' इस शब्द का प्रयोग किया गया है। एवम् 'भद्रात्मनः इस पद में द्वयर्थक 'कर' प्रादि शब्द का प्रयोग किया है । इसलिए वहाँ शैत्यपावनत्वादि तीरवृत्ति समझने के लिए तथा हस्ती अर्थ एवम् उस अर्थ के साथ प्रस्तुत राजा अर्थ का उपमालङ्कार समझने के लिए वृत्त्यन्तर व्यञ्जना अवश्य माननी चाहिए।" 'तया च न स्वायत्त इत्याद्यर्थापत्तिरेव तत्र मानमपि तु वाच्यलक्ष्यप्रतीतपदार्थानुपपत्तिरूपार्थापत्तिरेव सर्वत्र व्यजनायां मानम् प्रत एवावाच्यार्थधीकृतित्याहेति भाव इति व्याचक्ष्महे ।' (पृ. १३०-३१) इस कथन से वाच्यादि अर्थप्रतीति के अनन्तर प्रतीत व्यंग्य अर्थ के लिए व्यञ्जना-वृत्ति की आवश्यकता है। इसलिए प्राचार्य मम्मट ने 'प्रवाच्याथंघीकृत व्यापृतिरञ्जनम्, इस शब्द से प्रतीयमान अर्थबोधक व्यञ्जनावृत्ति का प्रतिपादन किया है। तथा अनेकार्थक शब्दस्थल में प्रकरणादि से नियन्त्रित अभिधा प्रकान्त आदि अर्थमात्र का प्रतिपादन कर क्षीण हो जाती है। वहाँ अप्रक्रान्तादि द्वितीय अर्थ एवं उसके साथ प्रतीयमान उपमादि अलङ्कार अभिधामूला व्यंजना से ही गम्य हो सकता है। यहां भर्तृहरि की 'संयोगो विप्रयोगश्च' इत्यादि कारिकाएं प्राचार्य मम्मट ने उपस्थित की हैं।
SR No.034217
Book TitleKavya Prakash Dwitya Trutiya Ullas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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