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________________ ( ३६४) वसंतराजशाकुने-त्रयोदशो वर्गः। भूमिनीरमरुदग्निखशब्दान्कोटरांतरगतः कुरुते चेत् ॥ लाभरोगवधविघ्नकलीस्तत्संप्रयच्छति खगः परिपाट्या ॥१३॥ सुस्थानलाभं सुतरौ सुचेष्टो धान्यार्थसौख्यानि पुनः सुभूमौ ॥ अवामपादोच्छ्रयणादसौख्यमाख्याति चान्योच्छंयणेऽतिसौख्यम् ॥ १५४ ॥ त्वचं समुत्तुट्य तरोरधस्तात्पत्राणि पुष्पाणि फलानि वापि ॥ पक्षी क्षिपन्देहभृतां स्वपक्षं . क्षिप्रं च लक्ष्मी क्षिपयत्यवश्यम् ॥१५॥ नरस्य यद्यर्चितमात्र एव पिंगो विहंगोऽभिमुखोऽभ्युपैति ॥ बंधं तदा वामगतस्तु मृत्युं रोगं पुनर्दक्षिणगः करोति ॥१६॥ ॥ टीका॥ गत्वाऽदृश्यमानः दीप्तध्वनिः स्यात्तदानीं देहहानौ सदेहं न आहुः ॥१५२॥भूमीति॥ चेत्कोटरांतरगतः भूमिनीरमरुदग्निखशब्दान्कुरुते लाभरोगवधविनकलीन् तत्तस्माद्धेतोः खगः परिपाट्या क्रमेण प्रयच्छति ॥ १५३ ॥ सुस्थानेति ॥ सुतरौ सुचेष्टः खगः सुस्थानलाभं ददाति पुनः मुभूमौ धान्यार्थसौख्यानि ददाति ॥ अवामपादोच्छ्यणादसौख्यमाख्याति अन्योच्छ्यणेन चातिसौख्यम् ॥ १५४ ॥ ॥ त्वचमिति ॥ तरोरधस्तात्त्वचं समुत्पाट्य पत्राणि पुष्पाणि फलान्यपि वा पक्षी स्वपक्षं च क्षिपन्सन्देहभृतां लक्ष्मी क्षिप्रं अवश्यं क्षपयति ॥ १५५ ॥ ॥ नरस्येति ॥ यद्यर्चितमात्र एव पिंगः विहंगोऽभिमुखोऽभ्युपैति तदा बन्धं ॥ भाषा ॥ अदृश्य होय दीप्तध्वनि कर तो देहकी हानि करे ॥ १५२ ॥ भूमीति ॥ जो पिंगल वृक्षकी कोटरानमें स्थित होय पृथ्वी, जल, मरुत्, अग्नि, आकाश इन शब्दनकू करे तो लाभ, रोग, वध, विघ्न, कलह इन क्रमकरके देवें ॥ १५३ ॥ सुस्थानति ॥ सुन्दरवृक्षमें सुन्दर चेष्टा करे तो सुन्दरस्थानको लाभ देवे, फिर सुन्दर भूमिमें बैठा होय तो धान्य अर्थ सौख्य क्रमकरके देवे. और जेमने पांवकं ऊंचो करै तो असौख्य देवे. जो बांये पांवकू ऊंचो करै तो सौख्य देवै ॥ १५४ ॥ त्वचमिति ॥ वृक्षकी त्वचाकू उखाडकर नीचे फेंके पत्र, पुष्प, फल, इनेभी उखाड उखाड नीचे फेंके और अपनी पंखकू उखाड नाचें फेंके तो देहधारीनकी शीघ्र अवश्य लक्ष्मी नाश कर ॥ १५५ ॥ नरस्येति ॥ जो Aho ! Shrutgyanam
SR No.034213
Book TitleVasantraj Shakunam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasantraj Bhatt, Bhanuchandra Gani
PublisherKhemraj Shrikrishnadas
Publication Year1828
Total Pages606
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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