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________________ ( ४० ) -तीर्थंकरों के निमित्त देवता समवसरण की भूमिका में ही जिन संवर्तक पवन, मेघ एवं पुष्य प्रादि को करते हैं उनका साधुओं के लिये निषेध नहीं है। साधुनों का जब वहाँ खड़ा रहना कल्पता है तो फिर प्रतिमाओं के लिये तो कहना ही क्या ! क्योंकि प्रतिमा तो अजीव होती है। उसके निमित्त यदि हो तो उसको तो किसी भी प्रकार निषेध नहीं हो सकता। शङ्का-तीर्थंकरों में अथवा तीर्थंकरों की प्रतिमा के लिये जो वस्तु तैयार की गई हो वह साधुनों को किस प्रकार कल्पती है ? समाधानः-- साहमियो न सत्था तस्स कयं तेण कप्पइ जईणं । जं पुण पडिमाण कयं तस्स कहा का अजीवत्ता ॥ तीर्थंकर लिंग अथवा प्रवचन से साधर्मिक नहीं होते, क्यों कि लिंग से सार्मिक वे कहलाते हैं जो रजोहरा मुखस्त्रिका धारी होते है। ये लिंग भगवन्त के नहीं हैं। ऐसा कल्प होने से लिंग से तीर्थंकर सार्मिक नहीं होते इसी प्रकार प्रवचन से भी साधर्मिक वे कहलाते हैं जो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप संघ के अन्दर हों। "पवयमा संघोगयरे" इस वचन से भगवान उसके प्रवर्तक होने के कारण संघ के अन्दर नहीं होते। किन्तु वे संघ के अधिपति हैं। अतएव वे प्रवचन से भी सार्मिक नहीं हैं । इसीलिये तीर्थंकरों के लिये किया गया आहार जब साधुनों को कल्पता है तो प्रतिमा के निमित्त किये गये पाहार के नहीं कल्पने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता ! वह तो कल्पता ही है क्यों प्रतिमा अजीव है, और जीव को उद्देश्य मानकर यदि हो तो Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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