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________________ ( ३२ ) दूसण अणुभावेण, य परिहाणी होति प्रोसह बलाणं । तेणं मणुयाणं पि उ, अाउग मेहादि परिहाणी ॥ ----दुःषम काल में ग्राम-नगरादि भी श्मशान के समान हो जाते हैं। अतः क्षेत्र की हानि तथा काल में भी हानि होती है। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रसादि के अनन्त पर्याय भी समय समय पर घटते हैं, अर्थात् उनकी हानि होती है, वैसे ही अहोरात्रि के पर्यायों की भी हानि होती है। दुषम काल के प्रभाव से साधुओं के योग्य क्षेत्र मिलना दुर्लभ हो जाता है, दुष्काल एवं बार बार अन्य उपद्रव भी होते रहते हैं तथा धान्य का सत्त्व भी कम पड़ जाता है, जिससे मनुष्यों का बौद्धिक बल एवं आयु घट जाती है। प्रत्येक वस्तु के वर्णादि पर्याय अनन्त होते हैं एवं वे अनन्त अत्यन्त महान् माने गये हैं। जिससे समय समय पर प्रत्येक वस्तु के अनन्त पर्याय कम होते हैं । परन्तु वे अनन्त अल्प होने से एवं अवसर्पिणी के समय असंख्यात होने से प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक समय अनन्त पर्यापों का नाश होने पर भी तत्काल सभी वस्तुओं के नाश होने का प्रसंग आता ही नहीं है। ___इस व्याख्या से जो ऐसा कहते हैं कि एक समय में प्रतिद्रव्य में एक एक पर्याय का नाश होता है, ऐसे अनन्त पदार्थों की अपेक्षा से अनन्त पर्याय की हानि होतो है-यह भ्रम भी दूर हो जाता है। इससे अधिक इस सम्बन्ध में और विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की इच्छा रखने वालों को जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति सूत्र की वृत्ति आदि देखना चाहिए। Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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