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________________ में कहा है। कतिपय अज्ञानी समुद्घात के पूर्व ही वेदनीयादि कर्मों को दग्धरज्जु के समान मानते हैं, यह आगम विरुद्ध होने के कारण मिथ्या है। सूत्रकृतांग की टीका के द्वितीय श्र तस्कन्ध के अन्तर्गत पाहार परिज्ञा नामक तीसरे अध्ययन में भी वोटक मत का खण्डन करने के लिये इस प्रकार कहा है ___“यदपि दग्धरज्जुस्थानिकत्वमुच्यते वेदनीयस्य, तदपि अनागमिकमयुक्तिसंगतं चागमे ह्यत्यन्तोदय: सातस्य केवलिनि अभिधीयते । -यदि वेदनीय कर्म को दग्धरज्जु के समान कहा जाता है तो वह पागम विरुद्ध एव युक्ति रहित है, क्योंकि प्रागम में केवलियों के लिये अत्यन्त सातावेदनीय का उदय कहा जाता है । विशेषकर केवली समुद्घात के बाद वेदनीय कर्म दग्धरज्जु तुल्य रहता है । जैसा कि प्राचारांग सूत्र को टीका के प्रथम श्र,तस्कन्धान्तर्गत उपधानश्रु त अध्ययन की पीठिका में कहा है तथा दहनं केवलि समुद्घात ध्यानाग्निना वेदनीयस्य भस्मसात्करणं शेषस्य च दग्धरज्जु तुल्यत्वापादनमित्यादि। - इस प्रकार जलाना अर्थात् केवली समुद्घात में ध्यान रूपी अग्नि से वेदनीय कर्म को भस्म करना और शेष कर्मों को दग्धरज्जु के समान करना चाहिये ।। इसी प्रकार इस सम्बन्ध में आवश्यक बृहद्वृत्ति के द्वितीयं खण्डान्तर्गत कायोत्सर्गाधिकार में भी कहा है Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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