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________________ ( १७ ) वेहिं ते अणुजाणामि ति भणति चुण्णाणियसे सीसेच्छुहति ततो देवा वि चुण्णवासं पुप्फवासं च उवरिं वासंति गणं च सुधम्मसामिस्स धुरे ठवित्ता अणु जाणति एवं सामाइयस्स अत्थो भगवतो निग्गयो सुत्तं गणहरे हिं तो णिग्गतम् ॥" -भगवान् अनुज्ञा करते हैं एवं इन्द्र दिव्यचूर्ण का वज्रमय थाल भर कर भगवान् के समीप जाते हैं। इसके बाद भगवान् सिंहासन पर से उठकर केशर मिश्रित चूर्ण की पूरी मुट्ठी भरते हैं । तब गौतम स्वामी आदि प्रमुख ग्यारह गणधर कुछ झुककर अनुक्रम से खड़े हो जाते हैं । उस समय देवता वाद्यध्वनि एवं मंगल गीतों से वातावरण को परिपूरित कर देते हैं। ऐसे अवसर पर भगवान् गौतम स्वामी को द्रव्य, गुण एवं पर्याय द्वारा तीर्थ की अनुज्ञाकर उनके मस्तक पर चूर्ण (वासक्षेप : की मुठ्ठी डालते है। बाद में देवता उनके ऊपर चूर्ण एवं पुष्पों को वृष्टि करते हैं। और सुधर्मा स्वामी को गच्छ के प्रमुख स्थान पर स्थापित कर अनुज्ञा करते हैं। इस प्रकार सामायिक का अर्थ भगवान् ने बताया और उसको सूत्र रूप में गणधरों ने कहा अर्थात् सूत्रों की रचना गणधरों ने की। उपयुक्त अंश से दीक्षादि के अवसर पर शिष्यों के मस्तक पर वासक्षेप डालना जिनाज्ञानुमत ही है । प्रश्नः- ११-केवली भगवन्तों के जो वेदनीयादिचार कर्म शेष रहते हैं, उनका स्वरूप क्या है ? उत्तर-केवली भगवन्तों के वेदनीयादि चार कर्म जीर्ण वस्त्र के समान रहते हैं, ऐसा गुणस्थान क्रमारोह की वृत्ति Aho ! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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