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________________ ( १५८ ) इसलिये कि उसका अपना शरीर उसकी अपनी प्रात्मा में स्थित है, दर्पण में नहीं। अतः अपने शरीर को वह कैसे देख सकता है ! "पालिभागमिति"--अपने शरीर के प्रतिविम्ब को वह देखता है । प्रतिबिम्ब-छाया का पुद्गल है । तथा समस्त ऐन्द्रिक वस्तु स्थूल एवं वृद्धिहानि की धर्मवाली है । किरणों के समान समस्त किरणे होती हैं, इसप्रकार छाया का पुद्गलरूप व्यवहृत होता है। ये छाया पूदगल प्रत्यक्ष ही सिद्ध हैं। अतएव प्रत्येक स्थूल वस्तु की छाया की प्रतिति प्रत्येक प्राणी को होती है। प्रश्न १२६--कम्बलादि वस्त्र अतिशय दृढ़ता के साथ वेष्टित होने पर जितने आकाश प्रदेशों को अवगाहित (स्पर्श) करता है, क्या खुला करने ( फैलाने ) पर भी उतने ही प्राकाश प्रदेशों को अवगाहित करता है या न्यूनाधिक अाकाश प्रदेशों को। उत्तर- दोनों प्रकार से भी वह वस्त्र समान आकाश प्रदेशों को स्पर्श करता है न्यूनाधिक रूप में नहीं। इसमें केवल धन और प्रतर मात्र की विशेषता है-प्रदेश संख्या तो दोनों में बराबर है। श्री प्रज्ञापना सूत्रवत्ति में इन्द्रियपद के अन्तर्गत प्रथमोद्दशक में "कंबल साडएणं भंते-" इत्यादि पाट में यह अधि कार है। प्रश्न १२७-"अचित्त जोणि सुरनिरय' इस वचन से सूत्र में देव एवं नारकों की सचित्त योनि कही है, वह कैसे सम्भव है ? क्योंकि सूत्र में सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव को सर्वलोक व्यापी कहा है ! उत्तर- सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वलोक में व्याप्त होने पर भी उनके प्रदेशों से देव एवं नारकों के उपपात स्थान के Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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