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________________ ( १४२ ) ये प्रतिचार किस प्रकार होते हैं ? इसका समाधान इस प्रकार है कि--दो प्रादि के दो प्रतिचार तो जब अपने पति के वारे के दिन सौतने वारा लिया हो और सौत के वारे को लुप्त कर पति का सेवन करे तो स्त्री को पहिला प्रतिचार लगता है । तथा स्त्री पति को छोड़ कर अतिक्रमादिक से दूसरे पुरुष के पास जाय अथवा ब्रह्मचारिणी प्रतिक्रमादि से अपने पति के पास जाय तब दूसरा प्रतिचार लगता है । शेष तीव्र प्रतिचार तो स्त्रियों को भी पूर्ववत् लगते हैं । इसी प्रकार तीव्र कामाभिलाषी होने पर कामभोगों में अतृप्तता के कारण तीसरा प्रतिचार होता है तथा कामक्रीड़ा एवं अनङ्गकीड़ा के हेतु श्रावक, अत्यन्त पाप भीरु होने से ब्रह्मचर्य पालने की इच्छा रखने वाला होता हुआ भी जब वेदना उदय की असहिष्णुता के कारण ब्रह्मचर्य का पालन न कर सके तब वेदनी शान्ति के लिये स्वदार सन्तोषादि व्रत ग्रहण करता है, तो उसका यह स्वदार रमण कर्म कामतीव्राभिलाषा एवं अनंगक्रीड़ा के अर्थ से निषिद्ध है, क्योंकि उसके सेवन में किसी प्रकार का गुण नहीं होता, अपितु राजयक्ष्मादि दोष ही होते हैं । इस प्रकार निषेध का आचरण करने पर भंग एवं अपने नियम में बाधा न आने से अभंग होता है । इस प्रकार भंगाभंग रूप प्रतिचार जानना । तीव्र कामाभिलाष एवं अनंगक्रीड़ा रूप इन दो अतिचारों का विवेचन दूसरे श्राचार्य विभिन्न रूप से करते हैं । यथा- वह स्वदार सन्तोषी विचार करता है कि मैंने तो मैथुन का ही प्रत्याख्यान ( पच्चक्खग ) किया है, इस प्रकार की अपनी कल्पना से वह वेश्यादि में उसका त्याग करता है, परन्तु आलिंगन आदि का नहीं । कथचित् व्रत की सापेक्षता से ये अतिचार गिने जा सकते हैं । इसी प्रकार अपने-अपने पुत्रादिक से भिन्न दूसरों के पुत्र-पुत्री आदि का विवाह करना, कन्यारूपी Aho ! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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