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________________ ( १४० ) इसी प्रकार किसी से भी ग्रहण नहीं की गई, अन्य प्रकार का किराया देकर रखी हुई वेश्या को जिसका पति परदेश गया हो उस (प्रोषितभर्तृका) को, स्वैरिणी ( स्वेच्छा से विचरण करने वाली को, कुलाङ्गना या अनाथ स्त्री को सेवन करने पर दूसरा अतिचार होता है। यह अनुपयोग से या अतिक्रमादिको लेकर अतिचार है । अतिक्रमादि का अर्थ ऊपर कह दिया गया है । वह अर्थ यहां मैथुनादि से आश्रित कर ग्रहण करना चाहिये । यहां इसका यह परमार्थ है कि जब तक अपने शरीर के साथ उसके शरीर का स्पर्शन करे तब तक अतिचार है। "तदवाच्य प्रदेशे स्वाऽवाच्यप्रक्षेपेतु अनाचार एवेति" ये दो अतिचार स्वदार सन्तोषी के जानने चाहिये, परस्त्री त्याग करने वाले के नहीं । थोड़े समय के लिये रखी गई स्त्री वेश्या होने से एवं अपरिगृहीता अनाथ होने से इनमें परदारत्व का अभाव है। शेष तीन अतिचार तो दोनों को लगते हैं। यह हरिभद्रसूरि का मत है, यही सूत्रानुसारी भी है । कहा भी है कि-- "सदार सन्तोसस्स इमे पंच अइयारा जाणियव्या न समाप्ररियव्या " ---स्वदार सन्तोषी को ये पांच अतिचार जानने चाहिये, किन्तु इनका आचरण नहीं करना। दूसरे तो यह कहते हैं कि-'इत्वरपरिगृहीता यह अतिचार वस्दारसन्तोषी को होता है । पूर्व के अनुसार अपरिगृहीता का सेवन यह अतिचार तो परस्त्री का त्याग करने वाले को होता है, क्योंकि अपरगृहीता अर्थात् वेश्या ने यदि दूसरे किसी से Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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