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________________ ( १२२ ) 'हीणस्म विसुद्धपत्रमस्स नाणाहियस्स कायव्यं । जणचित्तग्गहणत्थं करति लिंगावसेसेऽवि ॥३४६।। अोसन्नस्स गिहिस्स व जिणपवयण तिव्वभावियमइस्स। कीरइ जं अणवज्ज दढसंमत्तम्सऽवत्थासु ॥३५०॥ --भाव चारित्र रहित शुद्ध प्ररूपणा करने वाले ज्ञान गुण से अधिक हो तो उनकी ओर जिनके पास केवल वेष हो तो उनकी भी सेवा करनी चाहिये तथा जो जिन प्रवचन से तीव्र भावित मति वाला अवसन्न हो या दृढ़ सम्यक्त्वी गृहस्थ हो तो उसकी रुग्णावस्था में दोषरहित होकर सेवा करना चाहिये। प्रश्न १००-ग्लान (रुग्ण) एवं उनकी सेवा करने साधु वाले दूसरे साधुओं की भोजनादि मण्डली में प्रवेश करें या नहीं ? उत्तर- ग्लान (रुग्ण) साधु एवं उनकी सेवा करने वाले साधु प्रायश्चित लेकर उनको पूरा करने के पश्चात् दूसरे साधुनों की मंडली में प्रवेश कर सकते हैं । ग्लान साधु को दश उपवास एवं परिचारक साध को दो उपवास का प्रायश्चित पाता है। मतान्तर से दोनों को दश उपवास का प्रायश्चित भी है। इस प्रकार के प्रायश्चित्त पूरे करने के पश्चात् दोनों साधु दूसरे साधुओं की भोजन मण्डली में प्रवेश करे । वहत्कल्प की टीका में इसी आशय को इस प्रकार व्यक्त किया गया है:"ग्लाने प्रगुणीभूते सति ग्लानस्य पंच कल्याणकं प्रायश्चित्त प्रतिचारकानां तु एककल्याणकं देयम् । Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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