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________________ ( १२१ ) “नियाईणं त्ति'' प्रादि शब्द से पार्श्वस्थ, अवसन्न, कुशील एवं संसक्त इनको भी ग्रहण करना चाहिये।) -नित्यवासी आदि इन पाँचों की भी ग्लान परिचर्या में जो विधि है वह इस प्रकार है : शुद्ध आहारादि से सेवा करनी चाहिये तथा बाद में उन्हें यह कहना चाहिये कि स्वस्थ होने के पश्चात् जैसा मैं कहूं वैसा करना । इसके साथ ही उनसे धर्म कथा कहना, यदि वे उस स्थान से चलना चाहें तो उनको पकड़ कर चलना । (गाथा में अपि शब्द सम्भावना के अर्थ में है) इसके अतिरिक्त देव मन्दिर की रक्षा करने वाले वेषधारी यदि रुग्ण हों तो उनकी भी सेवा करनी चाहिये। उन्हें वस्त्र देना, धर्म के लिये उद्यम करो, ऐसा कहना। यह सब यतना पूर्वक करे, जिससे संयम को लांछन न लगने पावे। तथा उनको क्रिया विषयक उपदेश दे दे। इसी प्रकार जिस देश में साधु एवं निह्नवक का भेद न जाना जाता हो, उस देश में निह्नवककों की भी यतनापूर्वक सेवा करना चाहिये। यदि रुग्ण यों कहे कि यह हमारे पक्ष का नहीं है तो वहाँ से चला जाना चाहिये और यदि वह यह कहे कि मुझे इस रुग्णता से तारो तो यतनापूर्वक सेवा करना, अमुक वस्तु लाऔ, ऐसा कहे तो जनता के सामने यह कहना कि यह वस्तु अकल्प्य है, साधु ऐसे नहीं होते हैं । जनता यदि साधु और निह्नवक का भेद जान जाय तो वहां से चले जाना ही चाहिये। इस प्रकार उपदेश माला में भी पार्श्वस्थादि की सेवा करने के सम्बन्ध में कहा है। उपदेश माला में तो यह भी कहा है कि यदि विपत्तिग्रस्त कोई श्रावक हो तो उसकी सेवा करनी चाहिये। इस आशय की दो गाथाएं इस प्रकार है । Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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