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________________ ( ७३ ) में उत्कर्ष से चार सिद्ध होते हैं। ऐसा नन्दीसूत्र वृत्ति में कहा है :--- यथाः-जेसिमणंतो कालो पडिवायो तेसि होइ अट्ठसयं अप्पडिवडिए चउरो दसगं दसगं च सेसाण ॥ --जिनको सम्यक्त्व से भ्रष्ट हए अनन्तकाल हो गया है वे एक समय में १०८ सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार संख्यात एवं असंख्यात काल वाले एक समय में दस, दस और अपतित सम्यक्त्वी एक समय में चार सिद्ध होते हैं । प्रश्न ५६:-सर्वार्थ सिद्ध विमान के ऊपर बारह योजन ऊवो सिद्ध शिला है, वह मध्य भाग में पाठ योजन जाड़ी (मोटी) है। उसके पश्चात् कितनी हानि से कम होती हई अासपास के भाग में अत्यन्त पतली होगई है ? उत्तर - श्री प्रज्ञापना सूत्र एवं टीका में तो लिखा है कि उसके पश्चात् समस्त दिशाओं एवं विदिशामों में थोड़े थोड़े प्रदेशों की हानि से कम होती होती अन्त में मक्खी के पंख से भी अत्यन्त पतली हो जाती है, जिसके सम्बन्ध में अंगुली के असंख्यात वे भाग जितनी जाड़ी कहा गया है, जो सामान्य रीति से ही है, विशेष रूप से नहीं । श्री उत्त राध्ययन सूत्र की कमल संयमी टीका में तो पुनः ऐसा कहा है किसिद्ध शिला मध्य भाग में पाठ योजन जाड़ी एवं अन्त में क्रमानुक्रम से घटती हई अत्यन्त पतली है। यहां विशेष हानि का उल्लेख नहीं किया गया है । फिर भी प्रत्येक योजन में अंगुल पृथकत्व ( दो से Aho! Shrutgyanam
SR No.034210
Book TitlePrashnottar Sarddha Shatak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamakalyanvijay, Vichakshanashreeji
PublisherPunya Suvarna Gyanpith
Publication Year1968
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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