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________________ खण्डहरोंका वैभव 1 1 पुष्पोंका बाहुल्य है । बायाँ भाग विशेष रूपसे सजा हुआ है, सदंड कमलसे गुँथा है । दायें कान में आभूषण बायें से बिल्कुल भिन्न प्रकारके हैं, जो स्वाभाविक हैं। गुप्तकालीन अन्य मूर्तियों में इस शैलीका जमाव मिलता है । गलेकी त्रिवली बहुत साफ़ है । भौंहें सीधी हैं; जो गुप्तकालकी विशेषता है | भालस्थलकी छोटीसी बिन्दी, दोनों भौंहोंके बीच शोभित है। आँखोंका निर्माण सचमुच आर्कषक है । आँखें चाँदीकी बनाकर ऊपरसे जड़ दो गई हैं। मध्यवर्ती पुत्तलिका-भाग कटा हुआ है । नागावली और यज्ञोपवीत शोभा में अभिवृद्धि कर रहे हैं । तारा के वक्षस्थलपर चोली है, इसमें चाँदी के फूल जड़े हैं। साड़ीका पहनाव भी है। सम्पूर्ण साड़ी में स्वाभाविक बेल-बूटे उकेरे हुए हैं । धातुपर इतना सुन्दर काम मध्यप्रदेश में अन्यत्र नहीं मिला । मुखमुद्रा, शरीरकी सुघड़ता, कलाकारकी दीर्घकालीन साधनाका परिणाम हैं । इस प्रकार ताराकी भव्य प्रतिमा प्रेक्षकोंको सहज ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है । मूल प्रतिमाके दोनों ओर स्त्रीपरिचारिकाएँ खड़ी हैं । दोनोंकी मुद्रा भिन्न है । दाई ओर वाली स्त्री अपना दायाँ हाथ, निम्न किये हुए है और बाँयें हाथमें सदंड कमल-पुष्प लिये है । कमलकी पँखुड़ियाँ बिल्कुल खिली हुई हैं । इनकी अँगुलियों में स्वाभाविकता है । बाईं ओर वाली स्त्री दोनों हाथमें पुष्प लिये समर्पित कर रही हो, इस प्रकार खड़ी है। बायें हाथमें कमल दंड फँसा रखा है । उपर्युक्त दोनों परिचारिकाओं के आभूषण, वस्त्र और केशविन्यास समान हैं । अन्तर केवल इतना ही है कि दाईं ओरवाली परिचारिका, उत्तरीयस्त्र धारण किये है जब बायीं ओर केवक चोली ही है। तीनों प्रतिमाओंकी रचना इस प्रकार है कि चाहे जब परिकरसे अलग की जा सकती हैं । तन्निम्न भाग में ढली हुई ताम्रकील है । परिकर में इनके लिए स्वतन्त्र स्थानपर छिद्र है । ३२४ मूर्तिका सौन्दर्य व्यापक होते हुए भी, बिना परिकर के खुलता नहीं. है । इसके परिकरसे तो मूर्तिका कलात्मक मूल्य दूना हो जाता है । परि 1 | Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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