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________________ मध्यप्रदेशका बौद्ध - पुरातत्त्व 1 ३२३ भी साधारण नहीं हैं । सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और आकर्षक भाग हैइनका केश विन्यास । यह केशविन्यास गुप्तकालीन कलाका सुस्मरण दिलाता है । केशराशि एकत्र होकर तीन आवली में मस्तकपर लपेट दी गयो है । प्रत्येक आवली में भी आभूषण स्पष्ट परिलक्षित होते हैं । विविध प्रकारके फूलोंसे गुँथा है । भालस्थलके ऊपर के भाग में सँवारे हुए केशोंपर एक पट्टी बँधी हुई है, जिससे केशराशि बिखरने न पावे | मध्य भाग में चणक प्रमाण स्थान रिक्त है। इसमें कोई बहुमूल्य रत्न रहा होगा, कारण कि सिरपुरकी और मूर्तियों में भी रत्न पाये गये हैं । अवशिष्ट केशोंकी वेणी दोनों ओर लटक रही है । कर्ण में कुंडलके अतिरिक्त I परिचायक हैं परन्तु हमारा अनुभव है कि पुरातन शिल्पकलात्मक अवशेष देवदेवीकी प्राचीन प्रतिमाएँ, जिनपर लेख उत्कीर्णित नहीं हैं, ऐसे कलाहमक उपकरणोंका समय निर्धारण करनेमें उपर्युक्त आभूषण अन्वेषण और मन में सहायक हो सकते हैं । कभी-कभी ये अवशेष पुरातत्वकी मूल्यवान् कड़ियाँ जोड़ देते हैं, अतः भारतीय पुरातन शिल्पस्थापत्य कला में एवं साहित्यिक ग्रन्थों में प्राप्त होनेवाले आभूषणविषयक लेखोंका अध्ययन पुरातत्त्व और सांस्कृतिक दृष्टिसे आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । मध्यकालीन भारत में कर्ण में विविध आभूषण परिधान करनेका उल्लेख पाया जाता है । कुछ प्राचीन मूर्तियाँ ऐसी मिली हैं जिनके कर्णसच्छिद्र हैं । आठवीं शतीके शिल्पावशेषों में इसका प्रचार प्रचुरतासे था । यों तो वाल्मीकि रामायण आदि प्राचीन ग्रन्थोंमें इसका उल्लेख आता ही है । प्रस्तुत प्रतिमा केयूर आवश्यकतासे अधिक बड़े होते हुए भी सौन्दर्यको रक्षा करते हैं। सिरपुरके भग्नावशेषों में केयूरोंका बाहुल्य है 1 इतना अवश्य है कि उत्तरभारतीय और पश्चिमभारतीय अवशेषों में उत्कीर्णित केयूरो में पर्याप्त विभिन्नत्व है । उत्तरभारतीय कुछ प्रतिमाओं में हमने केयूर रत्नजटित भी देखे हैं । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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