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________________ विन्ध्यभूमिकी जैन-मूर्तियाँ २८५ क्लिष्ट-सी जान पड़ती है। इसका निर्माणकाल स्पष्ट निर्देशित नहीं है, एवं न पार्श्वद आदि गन्धर्वके आभूषण ही बच पाये हैं, जिनसे समयका निर्णय किया जा सके। अनुमान तो यही लगाया जा सकता है कि यह १४ वीं या १५ वीं शताब्दीकी कृति होगी। संख्या ३-लंबाई १०६ इंच, चौड़ाई ४६ इंच। विस्तृत मटमैली शिलापर परिकर युक्त खड्गासन जिन-प्रतिमा उत्कीर्णित है । कलाकारने पार्श्वद एवं अन्य किन्नर किन्नरियों के प्रति कलाकी दृष्टि से जितना न्याय किया है, उतना मुख्य प्रतिमामें नहीं। प्रतिमाका मुख बुरी तरहसे घिस डाला गया है । तथापि कुछ सौन्दर्य तो है ही, दोनों हाथ मूलतः खंडित हैं, मूर्तिके पैर विचित्र बने हैं, जैसे दो खम्भे खड़े कर दिये गये हों । शारीरिक विन्यास बिलकुल भद्दा है। मूर्तिको छातीमें करीब ६ इंच लंबा ५ इंच चौड़ा चिकना गड्ढा पड़ गया है, ऐसा ही छोटा-सा गड्ढा दायीं जाँघमें भी पाया जाता है। ज्ञात होता है कि उन दिनों लोग इसपर शस्त्र पनारते रहे होंगे, क्योंकि यह पत्थर भी उसके उपयुक्त है। प्रतिमाके दोनों ओर पार्श्वद एवं ३३ किन्नरियाँ ध्वस्त दशामें विद्यमान हैं । बिलकुल निम्न भागमें दायीं और बायीं ओर क्रमशः स्त्री पुरुष दायाँ घुटना खड़े किये, बाँया घुटना नवाये हुए, नमस्कार कर रहे हैं । पार्श्वदके मस्तकपर दोनों ओर खड़ी और बैठी इस प्रकार दो दो प्रतिमाएँ हैं । ऊपर दोनों ओर ५, ५ मूर्तियाँ हैं ३, ३ पद्मासनस्थ और दो दो खड्गासनस्थ, इसके बाजूपर हाथी दो पैर टिकाये एक एक अश्व दोनों ओर खड़े हुए हैं, जिसपर एक एक मनुष्य आरूढ़ हैं । अश्व भी सर्वथा स्वाभाविक मुद्रामें स्थित हैं। प्रतिमाके स्कन्ध प्रदेशकी दोनों मकराकृतियाँ मुखमें कमल दंड दबाये हुए हैं । बाजूमें दोनों ओर पद्मासनस्थ मूर्ति हैं, इनकी बायीं ओर दो खड्गासन एवं बायीं ओर दो खड्गासनके बीच पद्मासनस्थ जिनमूर्ति है । भामंडल के निकटवर्ती का भाग खंडित हो गया है। इसके ऊपर एकाधिक किन्नर किन्नरियाँ पुष्पमाला लिये खड़े हैं। सभीके मस्तक खंडित हैं, अन्य मूर्तियोंमें जिस प्रकार छत्र Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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