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________________ विन्ध्यभूमिका जैन - मूर्तियाँ इस प्रकार मुखमुद्रा बनाये हुए खड़े हैं, मानो वे सेवा के लिए तत्पर हों । भाव भंगिमा भक्ति के अनुरूप है । पार्श्वद के पिछले हिस्से में बैठा हुआ हस्ती आवेश में आकर, इस प्रकार अपनी सूँड़ ऊँची किये हुए है और ग्राहके पूँछको दबाये हुए है, मानो सूँड़के बलपर ही वह खड़ा है । खास करके शेरका शारीरिक चित्र इस प्रकार खींचा है, कि मानो वह हाथी सूँड़ शिथिल होते ही गिर पड़ेगा । मूर्ति अर्द्धपद्मासनस्थ है । हाथ और चरणका कुछ भाग खंडित है । इस मूर्तिका आसन भी कुछ अनोखेपनको लिये है और जितनी भी प्रतिमाएँ मैंने देखीं उन सभीका आसन उतना चौड़ा है जितने में वह पलथी मारकर बैठ सके, परन्तु इसका श्रासन ऐसा बना है. मानो वह टिकने के स्थानसे, अतिरिक्त स्थान चाहती ही न हो । अर्थात् दोनों ओरके घुटने आसन से काफ़ी आगे निकले हुए हैं। आसनकी नावट भी और प्रतिमाओं से अधिक सौन्दर्यसम्पन्न है । इसके निर्माण में कलाकारने तीन भाव वताये हैं । प्रथम - एक चौकी निम्न भागके विशाल ग्राहके सरपर आधृत बताई है, साथ-ही-साथ ग्राहकी गर्दन के पास दो छोटे. स्तम्भ भी बना दिये गये हैं, जो ऊपरको चौकीको थामे हुए हैं। चौकी अगले भागपर साधारण रेखाएँ हैं । इसके ऊपर एक वस्त्र छिपा हुआ है, जिसका अग्र भाग दो स्तम्भोंके बीच सुशोभित है । वस्त्रकी उठी हुई विभिन्न रेखाएँ इस बातकी कल्पना कराती हैं कि ज़री या किसीसे भरा हुआ है । मध्यमें शंखका चिह्न स्पष्ट है । इसी वस्त्रके ऊपर दो इंच मोटी गद्दी जैसा आकार बना है इसीपर मूल प्रतिमा विराजमान है । इस प्रकारके आसनकी कल्पना बहुत कम दृष्टिगोचर होती है । अब प्रतिमा के दोनों ओर जो विचित्र मूर्तियाँ उत्कीर्णित हैं, उन्हें भी देखें । दाईं ओर निम्नभाग में एक महिला हाथ जोड़े वन्दना कर रही है । महिलाका मुख बहुत चपटा बनाकर कलाकारने न्याय नहीं किया । बाजू-बन्द आदि आभूषणों के साथ सुन्दर नागावली बनी हुई है। केश विन्यास १३वीं शताब्दी के अन्यावशेषोंसे मिलता-जुलता है । इस मूर्ति के ऊपर एक खंडित Aho! Shrutgyanam २७५
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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