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________________ प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ २५५ ऐसी स्थितिमें यह समुचित जान पड़ता है कि यदि प्राचीनतम देवीमूर्तियोंका अध्ययन किया जाय तो संभव है इस उलझनके सुलझनेका मार्ग निकल आये। यहाँपर श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य शिल्प शास्त्रीय ग्रन्थोंमें अंबिकाके जो स्वरूप निर्दिष्ट हैं उनके उल्लेखका लोभ संवरण नहीं किया जा सकता। इन स्वरूपोंसे मेरी स्थापनाको काफ़ी बल मिल जाता है। यहाँपर मैं एक बातको स्पष्ट कर देना आवश्यक समझता हूँ कि संप्रदाय मान्य शिल्पशास्त्रके जितने भी स्वतन्त्र ग्रन्थ या एतद्विषयक उल्लेख एवं उद्धरण उपलब्ध होते हैं, वे इस शैलीकी मूर्तियोंके निर्माण समयके काफ़ी बादके हैं। तथापि दोनोंमें आंशिक साम्य पाया जाता है एवं जिस कालमें ग्रन्थोंका प्रणयन हुआ उस कालकी चित्रकलामें भीविशेषतः पश्चिम भारतकी-अम्बिकाका वैसा ही रूप अभिव्यक्त हुआ है। अतः कोई कारण नहीं कि हम इन परवर्ती उल्लेखों पर अविश्वास करें। प्रासंगिक रूपसे यह भी बतला देना आवश्यक है कि शिल्प-शास्त्र जैसे व्यापक विषयमें साम्प्रदायिक मतभेदको स्थान नहीं हो सकता। क्योंकि मैं अपने अनुभवोंके आधारपर देवी-मूर्तियोंके संबंधमें तो अवश्य ही दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि, प्राचीन-कालमें देवी-मूर्ति के निर्माणमें सांप्रदायिक आग्रह नहीं था। कारण कि शिल्पशास्त्रीय उल्लेखोंके प्रकाशमें देवीमूर्तियोंको देखेंगे तो प्रतीत हुए बिना न रहेगा कि उभय संप्रदायोंमें परस्पर विरोधी भाववाली मूर्तियाँ भी बनीं। जैसे दिगम्बर-मान्य शिल्प ग्रन्थके अनुसार जैसा रूप अंबिकाका दिखता है, उसके अनुसार श्वेताम्बरोंने मूर्ति बनायी और श्वेताम्बर मान्य-रूपके अनुसार दिगम्बर जैनोंने । मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यों-ज्यों संप्रदायके नामपर कदाग्रह बढ़ता गया, त्यों-त्यों अपने-अपने रूप भी स्वतन्त्र निर्धारित होते गये। इसीके फलस्वरूप वास्तु-साहित्य-सृष्टि भी हुई। यदि प्राचीन मूर्तियोंको छोड़कर, केवल शिल्प कलात्मक ग्रन्थोंके उद्धरणों पर ही विश्वास कर बैठें तो, धोखा हुए बिना न रहेगा। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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