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________________ खण्डहरोंका वैभव पर विराजमान हैं । निम्न भागमें सात और मूर्तियाँ हैं, जो आमने-सामने मुख किये हुए हैं । वृक्षकी दोनों पंक्तियोंके बीच जिन भगवान्की प्रतिमा स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है । " I 1 इस प्रकारकी प्रतिमा जब सबसे पहले राजगृह स्थित पंचम पहाड़के ध्वस्त जैन मन्दिर के अवशेषों में देखी थी, तभी से मेरे मनमें कौतूहल उत्पन्न हो गया था । भारतके और भी कुछ भागों में इन्हीं भावोंवाली मूर्तियाँ मिलती हैं । जिनपर भिन्न-भिन्न विद्वानोंने अलग-अलग मत व्यक्त किये हैं । श्री रायबहादुर दयाराम सहानीका अभिमत है कि वह वृक्ष कल्पद्रुम है । ये बच्चे अवसर्पिणी, सुषम - सुषम समयकी प्रसन्न जोड़ियाँ हैं । श्री मदनमोहन नागरने इस प्रकार के शिल्पको "कल्पवृक्ष के नीचे बैठी हुई मातृकाओंकी मूर्ति" माना है । श्री वासुदेवशरण अग्रवालने वृक्षको कल्पवृक्ष माना है और निम्न अधिष्ठित दम्पति युगलको यक्षयक्षिणी मानते हुए आशा प्रकट की है कि जैन - विद्वान् इसपर अधिक प्रकाश डालेंगे ँ । जैन शिल्प स्थापत्य तथा मूर्तिकला के विशिष्ट अभ्यासी श्री साराभाई नवाब से पूछने पर भी इस मूर्ति के रहस्यपर कुछ प्रकाश न पड़ सका । उपर्युक्त प्रथम दो विद्वानोंकी सम्मतियाँ ऐसी हैं जिनपर विश्वास करना प्रायः कठिन है । २ २५४ जब भारत के विभिन्न भागों में इस शैलीकी मूर्तियाँ पायी जाती हैं, तब यह बात तो मनमें अवश्य आती है कि इनका विशिष्ट महत्त्व अवश्य ही रहा होगा, परन्तु जहाँतक प्राचीन शिल्प- स्थापत्य कला-विषयक ग्रन्थोंका प्रश्न है वे, प्राय: इस विषयपर मौन हैं । मेरी राय में तो यह afrat ही मूर्ति रही होगी । 'जैन - सिद्धान्त - भास्कर प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० २८३ । 3 श्री जैन1 - सत्यप्रकाश वर्ष ४, अंक १, पृष्ठ ८ । भाग ८, किरण २, पृष्ठ ७१ । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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