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________________ २२६ खण्डहरोंका वैभव मथुरामें जैन अवशेष मिले हैं, उनमें आयागपट्टक भी है। जिसके मध्यभागमें केवल जिन-मूर्ति पद्मासनस्थ उत्कीर्ण है। प्रासंगिक रूपसे एक बात कह देना और आवश्यक समझता हूँ कि प्रकृत कालीन जैन स्मारकोंका महत्त्व केवल श्रमण-संस्कृतिको धार्मिक भावनासे ही नहीं है, अपितु संपूर्ण भारतीय मूर्तिविधान परम्पराके क्रमिक विकासकी दृष्टि से उनका अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान है। यह तो सर्वविदित है कि कुषाणकालमें भारतीय कलापर विदेशी प्रभाव काफी पड़ा था। बाहरी अलंकरणोंको कलाकारोंने, जहाँतक बन पड़ा, भारतीय रूप देकर अपना लिया। जैनमूर्तियोंमें भी दम्पति-मूर्तियोंकी वेशभूषापर वैदेशिक प्रभाव स्पष्ट झलकता है । अयागपट्टक भी इसकी श्रेणीमें आंशिक रूपसे आ सकते हैं । मथुराके अतिरिक्त जैनअवशेष और विशेषतः उत्कीर्ण शिलालेख जैनसंस्कृतिके इतिहासपर अभूतपूर्व प्रकाश डालते हैं। ये लेख भारतीय भाषा विज्ञानकी दृष्टि से बड़े मूल्यवान् हैं। मुनिगण और शाखाओंके नाम भी इन लेखोंमें आते हैं। गुप्तकाल भारतीय मूर्ति विज्ञानका उत्कर्षकाल माना जाता है। मथुरा, पाटलिपुत्र, और सारनाथ गुप्तकालीन मूर्तिनिर्माणके प्रधान केन्द्र थे। विशेषतः इस कालमें बौद्ध-मूर्तियोंका ही निर्माण हुआ है। कुछ जैन-मूर्तियाँ भी बनीं। कुमारगुप्त के समयमें निर्मित भगवान् महावीरकी एक प्रतिमा मथुरा संग्रहालयमें अवस्थित है। जो उत्थित पद्मासनस्थ है।' स्कन्दगुप्तके समयमें भी गोरखपुर जिलान्तर्गत कोहम नामक एक स्थानमें जैन-मूर्ति स्थापित करनेकी सूचना गुप्त लेखोंमें मिलती है। 'इम्पीरियल गुप्त-श्री रा० दा० बनर्जी, प्लेट, १८ । फ्लीट-गुप्त इन्स्क्रिप्सन्स-१५ “श्रेयोऽर्थपार्थ भूत-भूत्यै नियमवतामहतामादि कर्तृन्"। Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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