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________________ प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ २२५ होती है । जैन-मूर्तिका आदर्श महाकवि धनपालके शब्दोंमें इस प्रकार हैप्रशम-रस-निमग्नं दृष्टि-युग्मं प्रसन्नं वदनकमलमङ्कः कामिनी-सङ्ग-शून्यः । करयुगमपि धत्ते शस्त्र-सम्बन्धवन्ध्यं तदसि जगति देवो वीतरागस्त्वमेव । जिसके नयन-युगल प्रशम-रसमें निमग्न हैं, जिसका हृदय-कमल प्रसन्न है, जिसकी गोद कामिनी संगसे रहित निष्कलंक है, और जिसके करकमल भी शस्त्र संबंधसे सर्वथा मुक्त हैं वैसा तू है। इसीसे वीतराग होने के कारण विश्वमें सच्चा देव है । किसी भी जैन-मंदिरमें जाकर देखें वहाँपर तो सौम्य भावनाओंसे ओतप्रोत स्थायी भावोंके प्रतीक समान धीर-गंभीरवदना मूर्ति ही नज़र आवेगी । खड़ी, शिथिल, हस्त लटकाये, कहीं नग्न तो कहीं कटिवस्त्र धारण किये या कहीं बैठी हुई पद्मासन-दोनों करोंको चेतनाविहीन ढंगपर गोदमें लिये हुए, नासाग्र भागपर ध्यान लगाये, विकार रहित प्रतीक, कहीं भी नज़र आये तो समझना चाहिए कि यह जैन-मूर्ति है, क्योंकि इस प्रकारकी भाव-मुद्रा जैनोंकी भारतीय शिल्पकलाको मौलिक देन है । मुकुटधारी बौद्ध मूर्तियाँ भी जैन-मुद्राके प्रभावसे काफी प्रभावित हैं। उपर्युक्त पंक्तियों में जिस भाव-मुद्राका वर्णन किया गया है, वह सभी जैन-मूर्तियोंपर चरितार्थ होता है । २४तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंमें मौलिक अंतर नहीं है, परन्तु उनके अपने लक्षण ही उन्हें पृथक् करते हैं । लक्षणकी पृथक्ता भी काफी बादकी चीज़ है, क्योंकि प्राचीन मूर्तियोंमें उसका सर्वथा अभाव पाया जाता है। एक और कारण मिलता है जो अमुक तीर्थकरकी प्रतिमा है, इसे सूचित करता है, पर यह भी उतना व्यापक नहीं जान पड़ता, वह है यक्षिणियोंका। जो अन्य तीर्थंकरोंकी प्राचीन मूर्तियाँ मिली हैं, उनमें भी अंबिका यक्षिणी वर्तमान है जब कि जैन वास्तु-शास्त्रानुसार केवल नेमिनाथकी मूर्ति में ही उसे रहना चाहिए । अस्तु । Aho! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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