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________________ महाकोसलका जैन-पुरातत्त्व २०६ भागमें जो आकृतियाँ उत्कीर्णित हैं वे किसी मन्दिरका मधुर स्मरण दिलाती हैं । उनके अलंकरण, भिन्न-भिन्न बेल-बूटे भी सामान्य होते हुए भी इसके सौन्दर्यका संवर्धन करते हैं । मगधकी प्रतिमाओंका एवं शिल्पकलामें व्यवहृत आकृतियोंका प्रभाव इसपर स्पष्ट है। प्रत्येक मूर्तिका उत्खनन इस प्रकार हुआ है, मानो स्वतन्त्र मन्दिर ही हों, कारण कि प्रत्येक मूर्ति के आगेके भागमें दोनों ओर सुन्दर स्तम्भोंका खुदाव दृष्टि आकर्षित कर लेता है। १२ वीं शतीकी यह रचना होनी चाहिए । यद्यपि ऊपरका कुछ भाग खंडित हो गया है, परन्तु सौभाग्य इस बातका है कि मूर्ति प्रतिमाओंके भाग बिलकुल हो अखण्डित हैं। जानकर आश्चर्य होगा कि यह अंश मार्गमें ठोकरें खाता था और घरवाले इसपर गोबर थापते रहते थे। यद्यपि कटनीके पुरातन वस्तुविक्रेता, इसे भी, अन्य अवशेषोंकी तरह हड्पनेकी चेष्टामें थे, पर वे असफल रहे । अब मेरे संग्रहमें हैं। ऋषभदेव-संवत् ६५१ प्रस्तुत प्रतिमा साधारण फर्शीका भूरा पत्थर है, वैसे इस प्रतिमाका कोई खास विशेष-सांस्कृतिक अथवा कलात्मक विकास नहीं जान पड़ता, किन्तु इसमें जो संवत् ६५१के अंक एवं लिपिमें जो अन्य शब्द हैं, वे काफ़ी भ्रामक हैं । संवत् ६५१ ज्येष्ठ सुदी तीज' इन शब्दोंको देखकर पुरातत्त्वका सामान्य विद्यार्थी एकदम प्रतिमाको दसवीं शतीकी रचना कह देगा। तिथि इतनी स्पष्ट है, परन्तु अन्य कसौटियोंसे कसे जानेपर यह मत असत्य सिद्ध होगा। तिथि भले ही सापेक्षित प्राचीनताकी परिचायक हो, पर जिस लिपिमें यह तिथि अंकित है, वह तो स्पष्टतः बादकी लिपि है । ऐसी लिपिका बारहवीं शतीमें व्यवहृत होना इतिहास और लिपि शास्त्रकी दृष्टि से सिद्ध है । अतः यह लिपि १२ वीं शतीकी ही है तो फिर क्या कारण है कि १२ वी शतीकी प्रतिमामें संवत् ६५१ खोदा जावे। इसका उत्तर भी Aho ! Shrutgyanam
SR No.034202
Book TitleKhandaharo Ka Vaibhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantisagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1959
Total Pages472
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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